किसी के प्रति अरुचि का भाव वैरभाव का बीज है: आर्यिका सौम्यनन्दिनी

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कोटा। महावीर नगर विस्तार योजना स्थित दिगंबर जैन मंदिर में चल रहे आर्यिका सौम्यनन्दिनी माताजी संघ के पावन वर्षायोग के अवसर पर माताजी ने प्रवचन करते हुए कहा कि कैसी भी परिस्थिति हो भाव वैसे रखना मनुष्य के हाथ में है। वहीं किसी भी कार्य में ‘‘मैं’’ का भाव है तो माने मलिन पुण्य का उदय हो रहा है।

संसार में अपेक्षा अनंत है, वहीं अपेक्षा होना दोष नहीं है। अपेक्षा के गर्भ में आग्रह का भाव होता है। लेकिन अपेक्षा को संतुष्ट करने से वो अधिक बढ़ती है और अधिक बलवान हो जाती है। यदि जीवन में आपने स्वयं को समझ लिया तो मैं, बैर, अपेक्षा और आग्रह कोई भी आपके जीवन में आग नहीं लगा सकते। क्योंकि मनुष्य का ‘‘मैं’’ भाव हमेशा चाहता है कि सबको मेरी हां में हां कहना है।

माताजी ने कहा कि किसी के भी प्रति अरुचि का भाव वैरभाव का बीज है। हमेशा स्वतंत्रता से जीने के साथ साथ सोच भी स्वतंत्र रखनी चाहिए। संसार में किसी को यदि संघ मिला है तो वो भाग्यशाली है। लेकिन संघ मिलने के बाद भी उसमें संघ की भावना नहीं है तो अगले जन्म में उसे वो संघ मिलना भी मुश्किल है।

अशुद्धि में जाना या विशुद्धि में जाना यह मनुष्य के हाथ में ही है। संसार में आप अपने मित्र बन जाओ, सारा संसार आपका मित्र बन जाएगा। हमने मन में इतनी गठानें बांध रखी हैं कि भगवान की वाणी व जीवन को संवारने के मंत्र अंदर प्रवेश नहीं कर पाते हैं। इन अहंकार व दुश्मनी की गांठों को खोलने का वक्त आ गया है।

जब तक जीवन में मैत्री का गुण नहीं आएगा, भक्ति भी प्रकट नहीं हो पाएगी। हम सारे जगत के जीवों के दोष दूर नहीं कर सकते लेकिन उन सबसे प्रेम तो कर ही सकते हैं। भगवान की भक्ति में यदि सब कुछ न्योछावर करना पड़े तो पीछे नहीं रहना चाहिए। धर्म व संस्कार के साथ उपकार की प्रवृत्ति हो तो जीवन में कभी दरिद्रता नहीं आती।