जिनकी स्वयं से मैत्री नहीं होती वह आत्महत्या करते हैं: आदित्य सागर मुनिराज

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कोटा। कर्मों के चयन से हम उन्नति व अवनति की दिशा की ओर अग्रसर होते हैं । सद कर्म और गुण हमें उंचा उठाते हैं और बुरे कर्म व अवगुण हमें नीचे ले जाते हैं । हमारे कर्म व गुण ही हमारी र्कीति व अपयश का कारण हैं। यह बात आदित्य सागर मुनिराज ने चंद्र प्रभु दिगम्बर जैन मंदिर समिति द्वारा आयोजित नीति प्रवचन में कही।

महाराज आदित्य सागर ने कहा कि श्रेष्ठ बुद्धि और मैत्री जिस व्यक्ति के पास है वह जगत में जाना, माना व पहचाना जाता है। उन्होंने मैत्री को आधार बताते हुए कहा कि हमें मायाचारी मैत्री नहीं करती चाहिए। वात्सलय व मैत्री बिना मायाचारी के होती है, तभी फलित होती है। उन्होने विश्व में आई कोरोना काल का जिक्र करते हुए कहा कि उस समय धन कुबेरों का जो हाल हुआ सबको पता है। उस समय धन नही संबंध काम आए। इसलिए मैत्री धन से श्रेष्ठ है।

आदित्य सागर जी ने बताया कि मैत्री गाय के समान होनी चाहिए। जिस प्रकार गाय अन्य के बछड़ो को भी बिना भेदभाव से अपना दूध पिलाती है, उसी प्रकार हम सब पर समान प्रकार से मैत्री भाव रखना चाहिए। यदि किसी के साथ मैत्री भाव हो तो उसके अंतिम समय तक साथ निभाना। उसके विषम समय भी उसके साथ खड़े रहना।

गुरूदेव ने गुटका सेवन करने वालों के लिए कहा कि जिनकी परिवार से मैत्री नहीं होती व गुटके का सेवन करते हैं। जिस व्यक्ति की स्वंय से मैत्री नहीं होती वह सबसे पहले आत्महत्या का विचार मन में लाते है।

इस अवसर पर चातुर्मास समिति के चातुर्मास समिति अध्यक्ष टीकम चंद पाटनी, मंत्री पारस बज, रिद्धि-सिद्धि जैन मंदिर अध्यक्ष राजेन्द्र गोधा,, सचिव पंकज खटोड़, राजमल पाटोदी सहित कई लोग उपस्थित रहे।