कोटा। जीवन में विपरीत परिस्थितियों का सामना करने में अक्सर हम बिखर जाते हैं और जीवन का आनंद नहीं ले पाते हैं। इसी के संदर्भ में आध्यात्मिक प्रबंधन का महत्व समझाते हुए कहा गया है कि जीवन में जब भी प्रबंधन आता है, सुख और शांति की वृद्धि होती है। लेकिन जैसे ही प्रबंधन चला जाता है, वही सुख और शांति भी गायब हो जाती है।
इसलिए, आध्यात्मिक प्रबंधन की आवश्यकता हमारे भीतर की शांति के लिए है, जबकि बाहरी प्रबंधन जीवन के बाहरी पक्ष को सुव्यवस्थित करने के लिए है। आदित्य सागर मुनिराज संघ ने अपने प्रवचन में यह बात कही।
इस अवसर पर सकल समाज से सरंक्षक राजमल पाटौदी, अध्यक्ष विमल जैन नांता, कार्याध्यक्ष जे के जैन, मंत्री विनोद टोरडी, चातुर्मास समिति से टीकम पाटनी, पारस बज, राजेंद्र गोधा, पदम जैन, लोकेश बरमुंडा, चंद्रेश जैन, प्रकाश जैन, रोहित जैन, सुरेंद्र जैन, संजय जैन, जितेंद्र जैन, राकेश सामरिया, संयम लुहाड़िया, तारा चंद बड़ला सहित कई लोग उपस्थित रहे। मंच संचालन संजय सांवला ने किया। इस अवसर पर अप्रमित सागर और मुनि सहज सागर महाराज संघ का सानिध्य भी प्राप्त हुआ।
जीवन का साइलेंसर
जिस प्रकार गाड़ी में साइलेंसर का काम शोर को कम करके धुआं बाहर निकालना है, उसी तरह जीवन का प्रबंधन है। अंदर की समस्याओं और तकलीफों को बिना शोर-शराबे के साइलेंटली बाहर निकालना। हर इंसान के जीवन में समस्याएं होती हैं, लेकिन जो व्यक्ति अपनी समस्याओं को प्रबंधन के माध्यम से हल करता है, वह जीवन को उत्सव की तरह जीने में सक्षम होता है।
परिस्थितियों को नहीं, मनःस्थिति को देखें
जीवन में हर वक्त, हर परिस्थिति एक जैसी नहीं होती। जैसे मौसम बदलता है, दिन और रात का चक्र चलता है, वैसे ही हमारे जीवन में भी सुख-दुख आते-जाते रहते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि हम इन परिस्थितियों को किस नजरिए से देखते हैं। जो व्यक्ति मन की स्थिति पर ध्यान देता है, वहीं हर परिस्थिति को उत्सव के रूप में मना सकता है। इसलिए, हर कार्य को उत्सव की भावना के साथ करने से जीवन में आनंद बना रहता है।
कर्तव्य या बोझ? दृष्टिकोण का अंतर
उन्होंने एक उदाहरण के माध्यम से बताया कि जब एक मां रोज स्वादिष्ट भोजन बनाती है, तो वह इसे समस्या मानकर करती है या उत्सव मानकर। अगर किसी कार्य को बोझ समझकर किया जाए, तो उसमें आनंद नहीं आता। वहीं, अगर उसी कार्य को कर्तव्य और उत्सव की भावना से किया जाए, तो जीवन में सकारात्मकता और आनंद का अनुभव होता है।
हर कार्य को उत्सव की तरह अपनाएं
गुरू आदित्य सागर ने कहा कि जीवन में कोई भी कार्य जैसे भोजन बनाना, पूजा करना, या मंदिर जाना हो—अगर उसे उत्सव की तरह मनाया जाए, तो हर क्रिया आनंददायक हो जाती है। गुरुजी ने उदाहरण दिया कि जब लोग भगवान पारसनाथ के मंदिर में दीपावली की पूजा करते हैं, तो वह महज एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि उत्सव होता है।
राम और सीता का उदाहरण
राम के वनवास को उत्सव की तरह मानकर जीवन जीने का दृष्टिकोण हमें सिखाता है कि कठिनाइयों को भी स्वीकार करके आनंदित रहना चाहिए। राम ने वनवास को समस्या नहीं माना, बल्कि उसे उत्सव की तरह स्वीकार किया। इसी प्रकार, लक्ष्मण और हनुमान ने भी अपने कर्तव्यों को समस्या की तरह नहीं, बल्कि उत्सव की तरह लिया। हनुमान ने जब सीता माता की खोज के लिए लंका की यात्रा की, तो उसे समस्या के रूप में नहीं देखा, बल्कि प्रभु राम का काम करने का अवसर माना।
जीवन को उत्सव मानकर जिएं
गुरूदेव ने सभी को संदेश दिया कि “हर परिस्थिति को उत्सव मानें।” जीवन में जो भी कार्य करें, उसे कर्तव्य और आनंद के भाव से करें। अगर जीवन को समस्याओं की बजाय उत्सव की तरह देखा जाए, तो हर चुनौती भी एक अवसर बन जाती है। जीवन हमें रोटी कमाने या केवल परिवार चलाने के लिए नहीं मिला है। जीवन का उद्देश्य आनंद और आत्मिक संतुष्टि है। हर दिन को उत्सव की तरह मानें और अपने कर्तव्यों को खुशी-खुशी निभाएं। यही सच्चा आध्यात्मिक प्रबंधन है।