जयपुर। राजस्थान में मुख्यमंत्री का चयन करना छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के मुकाबले काफी जटिल माना जा रहा था। चुनाव परिणाम आने के बाद जिस तरह से पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया के पक्ष में विधायकों की लॉबिंग हो रही थी और चुनाव जीतने वाले विधायक निर्वाचित वसुंधरा से मिलने उनके जयपुर स्थित आवास पर पहुंच रहे थे, उससे सीएम चेहरे का चयन जटिल होता नजर आ रहा था। ऐसे में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने पर्यवेक्षकों के माध्यम से जटिल मसले को सुलझाने का प्रयास किया।
मुख्यमंत्री पद को लेकर उलझे मसले को सुलझाने के लिए पार्टी नेतृत्व ने रक्षामंत्री राजनाथ सिंह जैसे कद्दावर नेता को पर्यवेक्षक बनाया। पार्टी नेतृत्व को विश्वास था कि राजनाथ ही वसुंधरा को साध सकते हैं। राजनाथ को संगठन, आरएसएस और सरकार तीनों का अनुभव होना भी इस मसले को सुलझाने में महत्वपूर्ण रहा है।
जयपुर में राजनाथ ने होटल में वसुंधरा के साथ करीब एक घंटे तक बंद कमरे में बात की। राजनाथ ने वसुंधरा को यह तो बता दिया कि पार्टी नेतृत्व किसी नए चेहरे को सीएम बनाना चाहता है, लेकिन नाम नहीं बताया। समझाया कि पार्टी के फैसलों के साथ चलना चाहिए। राजनीति बहुत आगे तक जाएगी। ऐसे में पार्टी का फैसला मानना चाहिए।
राजनाथ और वसुंधरा के राजनीतिक रिश्ते 2008 के अंत में राजनाथ सिंह भाजपा अध्यक्ष थे। शीर्ष नेतृत्व उस समय ओम प्रकाश माथुर को प्रदेशाध्यक्ष बनाना चाहता था। इसके लिए राजनाथ ने तत्कालीन सीएम वसुंधरा को संदेश भेजा । खुद फोन भी किया, लेकिन वसुंधरा ने राजनाथ से फोन पर बात ही नहीं की थी। इस पर राजनाथ नाराज हुए और बिना वसुंधरा की सहमति के माथुर के नाम की घोषणा कर दी थी। इसके बाद विधानसभा चुनाव हुए तो भाजपा विपक्ष में आ गई और कांग्रेस की सरकार बन गई।
2009 में लोकसभा चुनाव हुए तो प्रदेश की 25 सीटों में से भाजपा को केवल चार सीटें मिली थीं। कमजोर प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए माथुर और संगठन महामंत्री प्रकाशचंद्र ने शीर्ष नेतृत्व के निर्देश पर त्याग-पत्र दे दिया था, लेकिन वसुंधरा ने नेता प्रतिपक्ष के पद से त्याग-पत्र देने से इन्कार कर दिया था। राजनाथ नहीं माने तो वसुंधरा 15 अगस्त, 2009 को 57 विधायकों के साथ दिल्ली पहुंच गई थीं। जानकारी सामने आई कि वसुंधरा ने त्याग-पत्र दे दिया था, लेकिन तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष दीपेंद्र सिंह शेखावत को मिला ही नहीं था। फिर मामला ठंडे बस्ते में चला गया।