वसुंधरा नेता प्रतिपक्ष बनना नहीं चाहती, नेतृत्व तय नहीं कर पा रहा नाम

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-कृष्ण बलदेव हाडा-

राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के अपरोक्ष रूप से राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनने के प्रति अपनी अरुचि प्रकट कर दिये जाने के बावजूद पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व अभी भी पशोपेश में है कि इस पद के लिए दावेदारी जता रहे अन्य नेताओं में से किसे नेता प्रतिपक्ष बनाया जाए?

वैसे नेता प्रतिपक्ष के पद पर नैसर्गिक राजनीतिक हक श्रीमती राजे का है, लेकिन उनके लिए तो अगले विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद अहम हैं और इस नाते उनके लिए महत्वपूर्ण प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की इलेक्शन स्टेयरिंग कमेटी (चुनाव संचालन समिति) के अध्यक्ष पद है जिस पर उनकी निगाहे हैं। क्योंकि यह कमेटी ही केन्द्र खासतौर से मोदी-शाह दखल के बावजूद अगले विधानसभा चुनाव में टिकिट के लिये प्रत्याशियों के नाम तय करने में अहम भूमिका में शामिल होगी।

श्रीमती राजे को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेता गुलाबचंद कटारिया के बाद नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए भरसक कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि ऐसा माना जाता रहा है कि नेता प्रतिपक्ष बनने से उनका कद पार्टी में स्वतस्फ़ूर्त बढ़ जाएगा। ऐसा आमतौर पर समझा जाता है कि प्रदेश अध्यक्ष पद के बाद पार्टी के नजरिए से दूसरा अहम पद विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का होता है और यही वजह है कि यहां तो प्रदेश अध्यक्ष होते हुए भी सतीश पूनिया नेता प्रतिपक्ष बनने की जुगत में है।

क्योंकि सोच तो यह भी काम कर रही है कि अगर अगले विधानसभा चुनाव में प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के विधायकों के बहुमत का जुगाड़ हो गया तो नेता प्रतिपक्ष के नाते मुख्यमंत्री पद का भी जुगाड़ भिड़ाया जा सकती है। इसके अलावा यह भी आम धारणा है कि यदि विधानसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा में बहुमत हासिल हो सका तो नेता प्रतिपक्ष होने के नाते अगले मुख्यमंत्री पद के वे नैसर्गिक दावेदार बन जाएंगे।

इन कोशिशों के विपरीत अनुभवी राजनेता श्रीमती वसुंधरा राजे चुनाव समिति के अध्यक्ष पद का महत्व अच्छे से जानती हैं। वे जानती हैं कि अगले विधानसभा चुनाव में पार्टी के अधिकृत प्रत्याशियों के नाम तय करने में इस समिति की अहम भूमिका होगी और इस नाते समिति अध्यक्ष के महत्त्व का तो आकलन तो स्वत: ही किया जा सकता है।

रहा सवाल नेता प्रतिपक्ष का तो विधानसभा में श्रीमती राजे के सदस्य रहते भी दो बार ऐसे अवसर आए जब कांग्रेस का बहुमत होने के कारण अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने और श्रीमती राजे की उपस्थिति के बावजूद दोनों बार नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया बने लेकिन अगले चुनाव के बाद जब भाजपा बहुमत में आई तो श्रीमती राजे ही मुख्यमंत्री बनी जबकि तब नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया ही थे। ऐसा एक बार नहीं दो बार दोहराया गया।

श्रीमती राजे यह भी अच्छे से समझती हैं कि सीएम बनने के लिए नेता प्रतिपक्ष होना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि आम तौर पर जननेता होना और पार्टी पर अपनी पकड़ रखना ज्यादा जरूरी होता है। इसी मायने में जो ताकत उनके पास है, वह न तो असम का राज्यपाल बनाए जाने से पहले नेता प्रतिपक्ष रहे गुलाब चंद कटारिया में थी और न ही कटारिया के बाद इस पद के लिए दावेदारी जता रहे उप नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र सिंह राठौड़, आमेर से विधायक एवं प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया सहित वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवारी, डॉ. किरोड़ी लाल मीणा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि के गैर विधायक दल के सदस्य लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के नजदीकी ओम माथुर भी हैं, में है।

श्रीमती राजे को जनप्रिय नेता माना जाता है और आमतौर पर प्रदेश के अन्य नेताओं की तुलना में पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच श्रीमती राजे सर्वस्वीकार्य हैं। ऐसे में श्रीमती राजे को पार्टी नेतृत्व के समक्ष अपनी उपादेयता साबित करने की कोशिश करने की आवश्यकता नहीं है। रहा सवाल जनता और कार्यकर्ताओं के बीच अपने मजबूत पकड़ का तो बहुत मुमकिन है कि वह 4 मार्च को सालासर बालाजी में मनाए जाने वाले अपने जन्मोत्सव पर कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ जुटाकर साबित कर ही देंगी।

अपनी ताकत का अहसास करवाने के लिए ही तो श्रीमती राजे चार दिन पहले 4 मार्च को अपना जन्मोत्सव मना रही है क्योंकि जिस दिन 8 मार्च को उनका जन्म दिन आता है, उस दिन होलिकात्सव (धुलंड़ी) होने के कारण श्रीमती राजे का जन्म उत्सव इतने बड़े पैमाने पर मनाया जा पाना संभव नहीं है इसीलिए जन्मोत्सव मनाने के लिए यह तारीख तय की गई है ताकि अगले विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच अपनी अहमियत को वे साबित कर सकें।