सिद्ध महामण्डल विधान का भव्य शुभारंभ, आठ गुणों से युक्त सिद्धों से हुई आराधना

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कोटा। आरकेपुरम त्रिकाल चौबीस दिगम्बर जैन मंदिर से श्रुतसंवेगी आदित्य सागर जी महाराज ससंघ व मुनि अप्रमितम सागर का सानिध्य महिलाएं अपने-अपने कलशों में जल लेकर घट यात्रा के रूप में बैंड बाजों के साथ त्रिकाल चौबीस दिगम्बर जैन मंदिर पहुंची, जहां प्रतिष्ठाचार्य डॉ.अभिषेक जैन ने मंत्रोचार से कलशों से जल छिडकवाकर विधान स्थल का शुद्धिकरण करवाया।

मंदिर समिति के अध्यक्ष अंकित जैन ने बताया कि सिद्धचक्र विधान का शुभारंभ अभिषेक व शांतिधारा से किया गया और नंदीश्वर द्वीप पूजन किया गया। सुबह से इंद्र-इंद्राणी अभिषेक, शांतिधारा, घट यात्रा, ध्वजारोहण, इन्द्र प्रतिष्ठा, मंडप शुद्धि, सिद्धचक्र महामण्डल विधान, मुनि श्री द्वारा श्रुत समाधान महाआरती व शास्त्र स्वाध्याय के आयोजन में भक्ति भाव से जुडे।

मांगलिक झंडारोहण मनोज-निधि जेसवाल ने किया। बाूबलाल-विमला निशांत ने मंडप उद्घाटन किया। महामंत्री अनुज जैन ने बताया कि 25 मार्च तक सिद्ध चक्र महामण्डल विधान सतत जारी रहेंगा। इस अवसर पर विनोद जैन टोरडी, दीप जैन, अशोक पाटनी, राहुल जैन, प्रकाश चंद सेठिया, लोकेश बरमुंडा सहित सैकड़ों की संख्या में जैन समुदाय के लोग उपस्थित रहे।

परिणामों की विशुद्धि के लिए विधान
श्रुतसंवेगी आदित्य सागर जी महाराज ससंघ ने कहा कि यह सिद्धचक्र महामंडल विधान सुख, समृद्धि, शांति प्रदाता और सर्व सिद्धि प्रदायक है। पूजन,विधान, अभिषेक, किसी भी प्रकार का कोई भी अनुष्ठान है, एक लक्ष्य लेकर जीव चलता है मेरे परिणामों की विशुद्धि बनी रहे। उन्होंने कहा कि इस बार दो प्रकार से विधान सम्पन्न होगा। एक पंडित जी द्रव्य को इस थाली से उस थाली में ले जाकर बाहरी करेंगे और हम अंदर से मन को साफ करने के लिए जिनवाणी के श्रवण से भीतर से मन को साफ करेंगे।

सोलह गुणों से युक्त सिद्ध परमेष्ठी भगवान की आराधना
शाश्वत अष्टान्हिक महापर्व के तृतीय दिवस सिद्धशिला पर विराजमान सिद्ध परमेष्ठी के सोलह गुणों की पूजा अर्घ देकर सम्पन्न की गई। जिसमें उनके अनन्त दर्शन, ज्ञान अवगाहनत्व, अनंत वीर्यत्व, अव्याधत्व आदि अनंत गुणों से युक्त सिद्धस्वरूप को नमस्कार किया गया। प्रतिष्ठाचार्य डॉ.अभिषेक जैन ने सम्पूर्ण अनुष्ठान संगीतमय कराकर उन्होंने सिद्ध परमेष्ठी के गुण धर्म की आध्यात्मिक शास्त्रीय विवेचना की।

परस्पर बैर रखने से दुःखों की प्राप्ति होती है
मंदिर समिति के अध्यक्ष अंकित जैन ने बताया कि श्रुतसंवेगी मुनि आदित्य ‘ सागर मुनिराज ने शास्त्र वाचना कर षटलेश्याओं के स्वरूप की विवेचना के अंतर्गत कृष्ण लेश्या के स्वरूप की आगमोक्त विवेचना की। उन्होंने बताया कि अत्यधिक क्रोध करने से, परस्पर बैर रखने से परिणामों में दुष्परिवर्तन हो जाता है जिसे जैन आगम में कृष्ण लेश्या की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार के भाव रखने से पर जीव को नरक के दुःखों में प्राप्त होते है।