गहलोत ने अपनी ताकत का अहसास कराया, ताकतवर नेता के रूप में उभरे

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कांग्रेस आलाकमान तक को झुकने के लिए कर दिया मजबूर

कृष्ण बलदेव हाडा-
कोटा। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उनके प्रतिद्वंदी पूर्व उप मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके सचिन पायलट के बीच कम से कम अब राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के समापन तक शांति बने रहने की उम्मीद बन गई है। यह सब राहुल गांधी के दोनों नेताओं को पार्टी की विरासत (एसेट) बताए जाने के बाद राष्ट्रीय संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल के जयपुर आकर की गई मध्यस्थता के बाद ही संभव हो पाया है।

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच प्रदेश की बागडोर संभालने के मसले को लेकर यह विवाद वैसे तो करीब चार साल पहले गहलोत के तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के साथ ही शुरू हो गया था, लेकिन सवा दो साल से भी अधिक समय पहले यह विवाद इस कदर बढ़ा कि बात दोनों पक्षों के बाड़ेबंदी तक पहुंच गई।

दोनों ही मौकों पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपनी कुशल नेतृत्व क्षमता और राजनीतिक सूझबूझ का परिचय देते हुए न केवल अपने प्रतिद्वंद्वियों को करारी मात दी, बल्कि पार्टी आलाकमान तक को अपनी बात मानने के लिए मजबूर कर दिया।

इस विवाद की शुरुआत सबसे पहले वर्ष 2020 के जुलाई महीने में उस समय हुई थी, जब तत्कालीन उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट ने मुख्यमंत्री पद हासिल करने के लिए पूरी ताकत लगा दी। यहां तक कि पार्टी के प्रति निष्ठा को तिलांजलि देकर हरियाणा के मानेसर में अपने समर्थक अट्ठारह कांग्रेस विधायकों की बाड़ाबंदी कर गहलोत के नेतृत्व को चुनौती दी। तब यह आरोप लगाया था कि यह बाड़ेबंदी भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के निर्देश पर हरियाणा की भाजपा सरकार की मेजबानी में की गई है।

सचिन पायलट की इस बगावत के कारण हालत यह बनी कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को सत्ता में रहते हुए भी अपने समर्थक विधायकों की जयपुर के एक होटल में बाड़ेबंदी करनी पड़ी। दोनों पक्षों के बीच बाड़ेबंदी का यह सिलसिला तकरीबन 34 दिन तक चला। स्थिति यहां तक आ बनी कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को विधानसभा का सत्र बुलाकर वर्ष 2020 में 14 अगस्त को अपना बहुमत तक सिद्ध करना पड़ेगा।

उस समय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पूरी तरह बचाव की मुद्रा में रहे थे और पार्टी आलाकमान को दखल देकर विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने से पहले 10 अगस्त को गहलोत और पायलट के बीच सुलह-समझौता करना पड़ा। दूसरी बार ऐसे ही हालत अब से दो महीने पहले सितम्बर माह के अंतिम सप्ताह में बने जब ऐसा समझा जाता है कि सचिन पायलट ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए तत्कालीन पार्टी के प्रदेश प्रभारी अजय माकन को मोहरा बनाया।

इतना ही नहीं जयपुर में विधायक दल की बैठक बुलाकर अशोक गहलोत के स्थान पर सचिन पायलट को प्रदेश की सत्ता की बागडोर संभलाने का प्रस्ताव पारित करवाने की कोशिश की। तब ऐसा पहली बार हुआ जब अशोक गहलोत बचाव की जगह आक्रामक मुद्रा में आए और उनके समर्थक विधायकों ने ना केवल पार्टी पर्यवेक्षक के रुप में जयपुर आए मलिकार्जुन खड़गे और प्रदेश प्रभारी अजय माकन की ओर से आहूत विधायक दल की बैठक का बहिष्कार किया।

बल्कि मुख्यमंत्री के विश्वस्त सहयोगी वरिष्ठ मंत्री शांति धारीवाल की आवास पर विधायकों की समानांतर बैठक करके बहुमत से यह फैसला किया कि अशोक गहलोत के अलावा उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में और कोई नेता स्वीकार नहीं है। यह भी आरोप लगाया कि यह सारी कवायद अजय माकन के इशारे पर की जा रही है, जो सचिन पायलट को मुख्यमंत्री के पद पर थोपने पर आमादा है।

हालात जब बिगड़ने लगे तो ऐसा पहली बार हुआ कि पार्टी आलाकमान को पीछे हटना पड़ा और सचिन पायलट की मुख्यमंत्री बनने की ख्वाहिश को दरकिनार करते हुए अशोक गहलोत को ही मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार करना पड़ा। हालांकि अशोक गहलोत ने पार्टी खासतौर से सोनिया गांधी के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए सारे विवाद के लिए अपनी ओर से क्षमा मांगने का एक पत्र तत्कालीन कार्यवाहक कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती गांधी को सौंपा।

इस पूरे विवाद के दौरान कांग्रेस के लिहाज से यह विरल अवसर आया कि मुख्यमंत्री के रूप में अशोक गहलोत पूरी तरह से आक्रामक मुद्रा में नजर आए और उन्होंने सचिन पायलट की किसी भी हठ के सामने झुकने के लिए स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया। जिस प्रदेश में कभी इंदिरा गांधी या उनके बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी कि भ्रकुटी तनने पर अपने समय के दिग्गज नेता रहे मोहनलाल सुखाड़िया, हरिदेव जोशी, शिवचरण माथुर, जगन्नाथ पहाड़िया जैसे वरिष्ठों को मुख्यमंत्री पद गंवाना पड़ा।

23 जून 1985 को टोरंटो (कनाडा) से नई दिल्ली आ रहे एयर इंडिया के एक विमान कनिष्क -182 के खालिस्तान समर्थक आतंकवादियों द्वारा बम रखे जाने के बाद हुए विस्फोट में सभी 329 यात्रियों के अटलांटिक महासागर में डूब जाने के मामले को संसद में अशोक गहलोत के नागरिक उड्डयन मंत्री के रूप में बेहतर तरीके से नहीं उठा पाने के कारण तत्कालीन पीएम राजीव गांधी की नाराजगी के चलते अपना मंत्री पद गंवाना पड़ा था।

उसी राज्य में पहली बार अशोक गहलोत पूरी मजबूती के साथ अपने मुख्यमंत्री के रूप में अपने दावे पर अड़े रहे और उन्होंने अपने समर्थकों के साथ किसी भी हठ को स्वीकार करने से इंकार कर दिया और अंततः उनकी ही बात को सर्वोपरि माना गया।