कहीं डॉक्टर, इंजीनियर बनाने के दबाव में तो जान नहीं दे रहे छात्र, आखिर कौन है दोषी

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-कृष्ण बलदेव हाडा-
Coaching Student Suicide Case: कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी भारत जोड़ो यात्रा के तहत पिछले दिनों कोटा संभाग में थे। उनका तय कार्यक्रम था कि वे बंद पड़े आईएल कारखाने से पहले राजीव गांधी की प्रतिमा के पास कोटा में रहकर कोचिंग कर रहे छात्रों से बातचीत कर कोटा के शैक्षणिक माहौल और देश भर में शिक्षा की स्थिति के बारे में भी चर्चा करेंगे। लेकिन, व्यस्त कार्यक्रम की वजह से ऐसा संभव नहीं हो पाया। राहुल गांधी ने कोटा के कोचिंग छात्रों की भावनाओं को समझा।

अगले दिन जब उनकी यात्रा बूंदी जिले में प्रवेश कर गई तो उन्होंने अपने विश्राम स्थल पर कोटा के कोचिंग छात्रों से बातचीत करने के लिए बुलाया और उनसे उनकी शैक्षणिक स्थिति, व्यवस्थाओं और आवश्यकता के बारे में विस्तार से बातचीत की। कुछ संवाद कोचिंग संचालकों से भी फोन कॉल के जरिये किये। राहुल गांधी ने छात्रों से बहुत ही स्पष्ट शब्दों में एक बहुत महत्वपूर्ण बात पूछी। क्या वजह है कि- आज की युवा पीढ़ी केवल डॉक्टर-इंजीनियर ही बनना चाहती है या सेना-टीचिंग जैसे प्रोफेशन को ही अपनाना चाहती है।

जबकि और भी बहुत से सेक्टर हैं, जो खुले हुए हैं। लेकिन आमतौर पर स्टूडेंट उनका चयन नहीं करता तो ऐसे में क्या माता-पिता, अभिभावकों का ही बच्चों पर डॉक्टर-इंजीनियर या सेना में जाने या टीचर बनने का दबाव रहता है। उनमें से कुछ छात्रों का जवाब भी-हां में था। यानी उन्होंने भी माना था कि उन्हें उनकी इच्छा के विपरीत विषय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए कहा जाता है।

एक छात्र ने तो यहां तक माना कि उन्हें वैकल्पिक शैक्षणिक संसाधनों-व्यवस्थाओं के बारे में जानकारी तक नहीं है। इतना ही नहीं उनके अभिभावकों को भी भी नहीं पता। ऐसे में वे क्या करें? इसी यात्रा में राहुल गांधी की भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन से हुए साक्षात्कार में भी यह मसला उठा था, जिसे मैंने सुना कि रघुराम राजन अपनी बात रखकर राहुल गांधी को बता रहे हैं कि जॉब की सिक्योरिटी, रिटायर होने के बाद पेंशन जैसे ऐसे कुछ कारण हैं, जिसकी वजह से युवा ऐसा प्रोफेशन अपनाकर सरकारी नौकरियों को तरजीह देते हैं। जबकि संभावनाओं के द्वार तो गैर सरकारी क्षेत्र की बहुत सी नौकरी में भी खुले हुए हैं जो पारंपरिक कतई नहीं है।

आज मैनें सोशल मीडिया पर हमेशा सक्रिय रहने वाले सज्जन पीके आहूजा का पहले किसी छात्रा कृति केे आत्महत्या करने के समय लिखे गए सुसाइड नोट के बारे में दी गई बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी को पढ़ा।

आहूजा के अनुसार कोटा में आत्महत्या करने वाली छात्रा कृति ने अपने सुसाइड नोट में लिखा था कि -“मैं भारत सरकार और मानव संसाधन मंत्रालय से कहना चाहती हूं कि अगर वो चाहते हैं कि कोई बच्चा न मरे तो जितनी जल्दी हो सके इन कोचिंग संस्थानों को बंद करवा दें। ये कोचिंग छात्रों को खोखला कर देते हैं। पढ़ने का इतना दबाव होता है कि बच्चे बोझ तले दब जाते हैं। कृति ने लिखा है कि वो कोटा में कई छात्रों को डिप्रेशन और स्ट्रेस से बाहर निकालकर सुसाइड करने से रोकने में सफल हुई। लेकिन, खुद को नहीं रोक सकी। बहुत लोगों को विश्वास नहीं होगा कि मेरे जैसी लड़की जिसके 90+ मार्क्स हो वो सुसाइड भी कर सकती है। मैं आपलोगों को समझा नहीं सकती कि मेरे दिमाग और दिल में कितनी नफरत भरी है।

अब मेरी बात
मैंने करीब चार दशक से भी पहले एक मार्च 1980 से अपनी अल्पायु में और छात्र जीवन में ही नई दिल्ली के रामबाग रोड के आजाद मार्केट से प्रकाशित होने वाले एक साप्ताहिक समाचार पत्र ” युवा कलम” से अपना पत्रकारिता का सफर शुरू किया था। बीते सालों में स्वयं को प्रदेश का सबसे बड़ा अखबार होने का दम भरते-भरते लगभग अपना दम निकाल चुके एक अखबार में संवाददाता से लेकर कार्यकारी संपादक तक करीब 18 साल और बाद में देश के सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया से लेकर आज दिन तक वास्तविक अर्थों में देश की सबसे बड़ी हिंदी समाचार समिति ‘यूनीवार्ता’ में काम करते समय कई घटनाओं-दुर्घटनाओं का विवरण पेश किया।

लेकिन इस छात्रा का यह पत्र आज भी दुखदायी और विरल सा है, जिसमें अपनी जान देने से पहले वह अपनी मां को उलाहना देते हुए कह रही है- “आपने मेरे बचपन और बच्चा होने का फायदा उठाया और मुझे विज्ञान पसंद करने के लिए मजबूर करती रहीं। मैं भी विज्ञान पढ़ती रहीं ताकि आपको खुश रख सकूं। मैं क्वांटम फिजिक्स और एस्ट्रोफिजिक्स जैसे विषयों को पसंद करने लगी और उसमें ही बीएससी करना चाहती थी। लेकिन मैं आपको बता दूं कि मुझे आज भी अंग्रेजी साहित्य और इतिहास बहुत अच्छा लगता है क्योंकि ये मुझे मेरे अंधकार के वक्त में मुझे बाहर निकालते हैं।”

आहूजा की ओर से दी गई जानकारी में कृति अपनी मां को चेतावनी देती है कि- “इस तरह की चालाकी और मजबूर करने वाली हरकत 11वीं क्लास में पढ़ने वाली छोटी बहन से मत करना, वो जो बनना चाहती है और जो पढ़ना चाहती है उसे वो करने देना। क्योंकि वो उस काम में सबसे अच्छा कर सकती है, जिससे वो प्यार करती है।”

यह सब पढ़ना-लिखना वास्तव में बहुत ही दुखद है। ऐसा होना नहीं चाहिए कि बच्चों को उनकी इच्छाओं के विपरीत दूसरे विषयों में पढ़ने के लिए मजबूर किया जाए। मैं खुद जाता-जागता उदाहरण हूं। गणित विषय में सबसे अधिक कमजोर और सबसे निचले पायदान की बुद्धि रखने वाले मेरे जैसे छात्र को मेरे माता-पिता ने डॉक्टर-इंजीनियर बनने की नसीहत के साथ नवीं कक्षा में प्रवेश करवाते समय विज्ञान विषय दिलवाया और यहीं से शुरू वहां मार-मार कर पहलवान बनाने का सफर।

नतीजा यह निकला कि विज्ञान के प्रति अपनी अरुचि के चलते लड़खड़ाते जैसे-तैसे हाई सेकेंडरी तो पास कर ली। लेकिन, उससे आगे चला नहीं गया और मजबूरन और अवहेलना के दुख के साथ माता-पिता की इच्छाओं को ठुकरा कर कला विषय को ग्रहण किया, जो मेरे रुचिकर था और पहले ही साल कोटा के राजकीय महाविद्यालय में अपनी पसंद के विषय राजनीतिक शास्त्र में सबसे अधिक अंकों के साथ उत्तीर्ण हुआ।

लेखक और पत्रकार कभी भूतपूर्व नहीं होते
मैं डॉक्टर-इंजीनियर तो नहीं बन पाया लेकिन एक पत्रकार तो हूं ही। खास यह है कि हमेशा रहूंगा क्योंकि कोई भी पत्रकार कभी भी भूतपूर्व नहीं होता। एक राजनेता हो सकता है। एक इंजीनियर-डॉक्टर भी हो सकता है। एक राष्ट्रपति भी हो सकता है तो विधायक भी हो सकता है। लेकिन लेखक और पत्रकार कभी भूतपूर्व नहीं होते।