कोटा। आप बीमार हैं। डॉक्टर के पास चेकअप के लिए गए। उसने कुछ दवाइयां लिखीं। इनमें कुछ कैप्सूल भी हैं। बीमार हैं और सेहत ठीक करनी है।
इसलिए आप दवाइयों में मौजूद खा भी लेते हैं। ये जरूरी भी है। लेकिन, आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि जो कैप्सूल आप खा रहे हैं, उनके अंदर तो दवाई होती है लेकिन बाहरी हिस्सा यानी जिसे आप प्लास्टिक का खोल या कवर समझ रहे हैं, वो हकीकत में प्लास्टिक से नहीं बनता। इसका सच जानने के बाद शायद आप कैप्सूल ही ना खाएं। बहरहाल, अब इसके मैन्यूफैक्चरिंग मटैरियल को बदलने की कवायद भी तेज हो गई है।
ये प्लास्टिक नहीं, जिलेटिन है
– कैप्सूल का जो हिस्सा आपको प्लास्टिक से बना नजर आता है या आप जिसे प्लास्टिक से बना समझते हैं, वो वैसा नहीं है। यानी ये प्लास्टिक से नहीं बनता।
– दरअसल, ये प्लास्टिक जैसा दिखता जरूर है लेकिन इसे जिलेटिन कहते हैं।
कैसे बनता है जिलेटिन?
– कैप्सूल के पैकेट या डिब्बे पर उसमें मौजूद मेडिसिन कंटेंट की जानकारी तो होती है। लेकिन, ज्यादातर मामलों में कंपनियां आपको ये नहीं बतातीं कि कैप्सूल कवर जिलेटिन से बना है।
– हकीकत ये है कि जिलेटिन जानवरों की हड्डियों या फिर हड्डियों या स्किन को उबालकर निकाला जाता है। इसे प्रॉसेस कर चमकदार और लचीला बनाया जाता है।
मेनका गांधी ने किया था विरोध
– पिछले साल मार्च में केंद्रीय महिला एवं बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने हेल्थ मिनिस्ट्री को एक लेटर लिखा। इसमें कहा कि जिलेटिन की जगह पौधों की छाल या उनसे निकलने वाले रस से कैप्सूल कवर तैयार किए जाने चाहिए। इसे सेल्यूलोज कहा जाता है।
– मेनका ने कहा था कि इससे लोगों की धार्मिक भावनाएं भी आहत नहीं होंगी। पौधों की छाल और रस को कैमिकल प्रॉसेस के जरिए आसानी से सेल्यूलोज बन सकता है। मेनका ने कहा था कि कई शाकाहारी लोग जो कैप्सूल के सच को जानते हैं वो बीमारी के बावजूद इसे लेने से परहेज करते हैं।
– कुछ दिनों पहले यूनियन हेल्थ मिनिस्टर जेपी. नड्डा से जैन धर्म के कुछ लोगों ने मुलाकात की थी। इस दौरान उन्होंने कहा था कि जिलेटिन से बने कैप्सूल पर रोक लगाई जानी चाहिए।