हीलिंग द हीलर्स: रेजिडेंट्स चिकित्सकों में बढ़ती आत्महत्या, कारण व समाधान

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राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एन.एम.सी.) से सूचना के अधिकार (आरटीआई) के जवाब में कहा गया है कि पिछले पांच वर्षों में 64 एम.बी.बी.एस. और 55 स्नातकोत्तर चिकित्सकों की आत्महत्या से मृत्यु हो गई। इसके अतिरिक्त, 1,166 छात्रों ने मेडिकल कॉलेजों को छोड़ दिया।

वर्ल्ड सुसाइड प्रिवेंशन डे (10 सितम्बर 2023) पर विशेष आलेख

डॉ. सुरेश पाण्डेय
सुप्रसिद्ध नेत्र चिकित्सक एवं अनेक पुस्तकों के लेखक
पूर्व उपाध्यक्ष इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन कोटा

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार अमेरिका जैसे विकसित देश में प्रतिदिन एक चिकित्सक आत्महत्या कर लेता है। हर वर्ष अमेरिका में लगभग 400 डॉक्टर्स आत्महत्या कर लेते हैं। महिला चिकित्सकों को पुरुषों की तुलना में आत्महत्या का प्रयास करने का अधिक जोखिम होता है। डॉक्टरों में आत्महत्या एक ‘पब्लिक हेल्थ क्राइसिस’ (public health crisis) मानी गई है।

चिकित्सकों में बढ़ती आत्महत्या के मामलों की गंभीर समस्या को रेखांकित करने के लिए सुप्रसिद्ध फिल्म मेकर रोबिन साइमन द्वारा वर्ष 2018 में ‘डू नो हार्म’ नामक डूक्यूमेंट्री फिल्म बनाई गई थी, जिससे वैश्विक स्तर पर इस समस्या पर ध्यान गया था। मेडिकल प्रोफेशन से जुडे जितने भी चिकित्सक आत्महत्या करते हैं, उनमें सबसे अधिक संख्या साईक्रेट्री एवं अनेस्थेसिया के डॉक्टर्स की होती है।

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एन.एम.सी.) से सूचना के अधिकार (आरटीआई) के जवाब में कहा गया है कि पिछले पांच वर्षों में 64 एम.बी.बी.एस. और 55 स्नातकोत्तर चिकित्सकों की आत्महत्या से मृत्यु हो गई। इसके अतिरिक्त, 1,166 छात्रों ने मेडिकल कॉलेजों को छोड़ दिया।

चिकित्सा क्षेत्र एवं मेडिकल प्रोफेशन को ज्यादातर वही लोग चुनते है जो एक व्यक्ति के तौर पर अधिक संवेदनशील होते है। यह एक अच्छा चिकित्सक होने के लिए एक नेसर्गिक गुण भी है। क्योकि आप दूसरे की पीडा को दूर करने में भावनात्मक सहायता तभी कर सकते है जब आप उस दर्द की पीडा को समझते हो।

मेडिकल प्रोफेशन में काम के बढते दबाव व लंबी ड्यूटी घंटे- होने के कारण सबसे ज्यादा आत्महत्या की घटनाएं रेजिडेन्ट डॉक्टर्स में पाई जाती है। रेजिडेंट डॉक्टर्स व्यस्त मेडिकल कॉलेज अस्पतालों की जिम्मेदारी उठाने की अहम कड़ी होते हैं जहां ये सीनियर प्रोफेसर के मार्गदर्शन में बिना ना नुकुर किए अनवरत कार्य करते रहते हैं।

मेडिकल कालेज अस्पतालों के इमरजेंसी विभागों में पोस्टेड कई रेजिडेन्ट डॉक्टर्स 24 घंटे नही बल्कि 48 घंटे या उससे भी अधिक समय गंभीर एवं मरणासन रोगियों को बचाने में लगा देते है। सप्ताह भर में बिना ब्रेक लिए 80 घंटे से भी अधिक काम करना रेजिडेन्ट चिकित्सकों के लिए कोई नई बात नही है।

लंबे समय तक बिना ब्रेक लिए, ब्रेड, बिस्किट खाकर, आधी अधूरी नींद लेकर अस्पतालों में गंभीर बीमारियों से पीडित रोगियों के लिए डयूटी देना मानसिक क्षेत्र में भारी तनाव उत्पन्न करते है, जो गंभीर अवसाद या कभी कभी आत्महत्या का कारण बन सकते है।

रेजिडेन्ट डॉक्टर्स में आत्महत्या बढ़ने के मुख्य कारणों में से एक अत्यधिक कार्यभार होने के कारण उत्पन्न तनाव है। मेडिकल कालेज अस्पताल में रोगियों के अत्यधिक क्लीनिकल कार्यभार के बीच रेजिडेन्टस चिकित्सकों को पोस्ट ग्रेजुएट परीक्षा की तैयारी करने, पढ़ने, थीसिस (शोध) लिखने और सेमिनार या अन्य एकेडमिक एक्टिविटीज के लिए प्रजेंटेशन बनाने के लिए समय निकालना मुश्किल हो जाता है।

सरकारी अस्पतालों में नर्सिंग एवं अन्य सहायक स्टार्फ की कमी के चलते रेजिडेन्ट डॉक्टरों को रोगियों के खून के नमूने निकालने से लेकर, स्ट्रेचर खींचने, सेम्पल की रिपोर्ट लेकर आने आदि काम भी रेजीडेन्ट डॉक्टर्स को नियमित रूप से करने पड सकते है। उचित सुरक्षाकर्मियों के अभाव में उन्हें गंभीर रूप से पीडित रोगियों की जान नही बचा पाने पर उनके परिजनों द्वारा अपमान, हिंसा, मारपीट अथवा जानलेवा हमले आदि घटनाओं का शिकार भी होना पडता है।

विश्वभर को प्रभावित करने वाली कोविड 19 वैश्विक महामारी ने हाइजिन, हैल्थ बजट, हॉस्पिटल एवं हेल्थकेयर पॉलिसी पर सभी का ध्यान आकर्षित किया है। भारत में चिकित्सा सुविधाओं को दिया जाने वाला कम बजट (जी.डी.पी. का लगभग 1.5 प्रतिशत), मेडिकल कॉलेज, सरकारी अस्पतालों में मरीजों का निरंतर बढता दबाव, चिकित्सा सुविधाओं का अभाव एवं चिकित्सकों के प्रति रोगियों एवं उनके परिजनों द्वारा किया गया।

हिंसक व्यवहार आदि घटनाएं रेजिडेन्ट चिकित्सकों के मनः क्षेत्र में भारी तनाव उत्पन्न करती है, जो निराशा, अवसाद एवं मायूसी को जन्म देती है। रेजिडेंट्स चिकित्सकों में आत्महत्या अवसाद, निराशा को रोकने के लिए सरकार को हेल्थ पॉलिसी पर ध्यान देते हुए मेडिकल कॉलेज अस्पतालों का कायाकल्प करना होगा।

कोविड-19 वैश्विक महामारी से सबक लेते हुए सरकार को अविलम्ब जी.डी.पी. का 5 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं में खर्च किया जाए। मेडिकल कॉलेज, सरकारी अस्पतालों की लचर व्यवस्थाओं को फिर से दुरस्त किया जाए। रेजिडेन्ट डॉक्टर्स की ड्यूटी के घंटे निर्धारित किए जाए।

अस्पतालों में होने वाली तोड-फोड एवं मरीजों अथवा तिमारदारों द्वारा रेजिडेंट्स चिकित्सकों के प्रति हिंसा, मारपीट की घटनाएं रोकने के लिए सख्त कानून बने एवं दोषियों को गैरजमानती धाराओं में मुकदमा दर्ज कर सजा दी जाए, जिससे युवा चिकित्सकों का मनोबल नहीं टूटे।

रेजिडेन्ट डॉक्टर्स की सभी समस्याओं के निराकरण और काउंसलिंग के लिए मेडिकल कॉलेज में पृथक अनुभाग होना चाहिए। राज्य व केन्द्र सरकारेें रेजीडेन्ट डॉक्टर्स की परिवेदनाओं के लिए इंटरनेट पर पोर्टल बना सकती है।

रेजिडेन्ट का कार्यभार कम करके अस्पताल में तथा मेडिकल कॉलेज हॉस्टल में आधार भूत ढांचा उपलब्ध करवाकर रेजिडेन्ट डॉक्टर्स के पठन पाठन की उचित व्यवस्था करके उनकी समस्याओं के निराकरण पर ध्यान नहीं दिया तो रेजिडेन्ट डॉक्टरों की आत्महत्या का सिलसिला नही रूकेगा।

रेसिडेंट चिकित्सक सुसाइड हमारे देश के लिए अपूरणीय क्षति है। एक एम.बी.बी.एस. चिकित्सक को तैयार करने में 6 वर्ष का समय लगता है। यदि स्पेशलाइजेशन अथवा सुपर – स्पेशलाइजेशन का समय भी जोडा जाए तो यह समय बढकर 9 से 12 वर्ष हो जाता है।

आज जरूरत इस बात की है कि सरकार, स्वास्थ्य विभाग, नेशनल मेडिकल कमीशन, इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन, एवं अन्य चिकित्सा संगठन युवा चिकित्सकों में बढ रही आत्महत्या की घटनाओं को रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाएं जिससे इन घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं हो।