मुंबई/ नई दिल्ली। ICMR Report: निमोनिया और सेप्सिस जैसी बीमरियों के लिए जी जाने वाली कार्बापेनम नामक एंटीबायोटिक अब बेअसर हो रही है। देश के अधिकांश बीमार रोगियों को इस दवा से अब कोई लाभ नहीं हो सकता। यह कहानी सिर्फ इसी एंटीबॉयोटिक की नहीं है।
ICMR की नई रिपोर्ट में यह निकलकर सामने आया है कि एंटीबायोटिक दवा अब धीरे-धीरे बेअसर साबित हो रही है। शुक्रवार को जारी अध्ययन में पाया गया कि एंटीमाइक्रोबियल दवाओं का दुरुपयोग, चाहे वे एंटीबायोटिक्स हों, एंटीवायरल हों या एंटिफंगल हों, ने इन दवाओं के प्रति प्रतिरोध पैदा कर दिया है।
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) ने 1 जनवरी से 31 दिसंबर, 2022 के बीच देश भर के 21 अस्पतालों से डेटा एकत्र किया है। जिसमें मुंबई के सायन में बीएमसी की ओर से संचालित एलटीएमजी अस्पताल और महिम में हिंदुजा अस्पताल शामिल हैं। अस्पताल में होने वाले संक्रमणों का विश्लेषण करने के लिए आईसीयू रोगियों से लगभग 1 लाख कल्चर आइसोलेट्स का अध्ययन किया गया, जिसमें 1,747 पेथोजन पाए गए, जिनमें सबसे आम बैक्टीरिया ईकोली था, उसके बाद एक अन्य बैक्टीरिया क्लेबसिएला निमोनिया था।
आईसीएमआर की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2017 में दवा प्रतिरोधी ई-कोली संक्रमण वाले 10 में से 8 मरीज कार्बापेनम से ठीक हो गए थे, लेकिन 2022 में केवल 6 मरीज ही ठीक हो पाए। बैक्टीरिया क्लेबसिएला निमोनिया के दवा प्रतिरोधी अवतार के कारण होने वाले संक्रमणों के साथ यह और भी बुरा है।
10 में से 6 मरीजों को यह दवा मददगार लगी थी, लेकिन 2022 में केवल 4 मरीजों को ही इससे मदद मिल सकी। अध्ययन के मुख्य लेखकों में से एक, आईसीएमआर की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. कामिनी वालिया ने कहा, ‘भले ही पश्चिम में विकसित ई-कोली के लिए नई एंटीबायोटिक्स अभी भारत में आती हैं, लेकिन वे कुछ दवा प्रतिरोधी भारतीय ई-कोली स्ट्रेंस के खिलाफ काम नहीं कर सकती हैं।’
डॉ. वालिया ने कहा कि 2022 की रिपोर्ट में भारत में व्यापक एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध के बीच कुछ उत्साहजनक रिजल्ट भी हैं। उन्होंने कहा कि हमें यह कहते हुए खुशी हो रही है कि पिछले 5 से 6 वर्षों में प्रमुख सुपरबग के प्रतिरोध पैटर्न नहीं बदले हैं, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि हम कोई गिरावट नहीं देख रहे हैं।
दूसरा, वैज्ञानिकों ने सभी सुपरबग्स में प्रतिरोध के एक आणविक तंत्र(Molecular Mechanism) की खोज की। डॉ. वालिया ने कहा, ‘हमने पाया कि एनडीएम (New Delhi metallo-beta-lactamase) अक्सर मल्टी ड्रग प्रतिरोधी स्यूडोमोनास के आइसोलेट्स में देखा जाता है। यह एक अनोखी घटना है जो केवल भारत में देखी जाती है और यह एंटीबायोटिक डेवलपर्स को भारतीय जरूरतों के अनुरूप नई दवाएं बनाने में मदद कर सकती है।’
डॉक्टरों का कहना है कि व्यापक-स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक दवाओं का अंधाधुंध उपयोग और नुस्खा सबसे बड़ा गुनहगार है। डॉ. वालिया ने कहा, ‘यहां तक कि डायरिया के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सामान्य दवाएं जैसे नॉरफ्लॉक्स या ओफ्लॉक्स भी उतनी प्रभावी नहीं हैं।’
उन्होंने आगे कहा, ‘वास्तव में, अगर हम एक नई दवा पेश करते हैं, और उसका उपयोग उसी तरह करते हैं जैसे कार्बापेनम का उपयोग करते थे, तो वह जल्द ही अपनी क्षमता खो देगी।’ पश्चिम में, 10% और 20% के बीच प्रतिरोध स्तर को चिंताजनक माना जाता है, लेकिन भारत में डॉक्टर 60% प्रतिरोध की रिपोर्ट होने पर भी दवा लिख देते हैं। उन्होंने कहा कि डॉक्टरों को पर्चे को और अधिक गंभीरता से लेना चाहिए।
एक सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ने कहा कि बेहतर संक्रमण-नियंत्रण तंत्र के बिना कभी भी एंटीमाइक्रोबिल रेसिस्टेंस में सुधार नहीं होगा। अस्पतालों में यह सवाल करने के लिए जांच की व्यवस्था होनी चाहिए कि कोई विशेष डॉक्टर किसी मरीज को व्यापक-स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक क्यों लिखता है। डॉ. वालिया ने कहा कि ध्यान संकीर्ण-स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग पर होना चाहिए। हालांकि, आईसीएमआर रिपोर्ट से जुड़े नहीं एक वरिष्ठ डॉक्टर ने कहा कि कई बार, अस्पताल में खराब या अपर्याप्त संक्रमण-नियंत्रण उपायों के कारण व्यापक-स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक्स निर्धारित किए जाते हैं।