नयी दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों पर परोक्ष रूप से हमला करते हुए पारिवारिक पार्टियों को संविधान के प्रति समर्पित राजनीतिक दलों के लिए चिंता का विषय बताया और दावा किया कि लोकतांत्रिक चरित्र खो चुके दल, लोकतंत्र की रक्षा नहीं कर सकते हैं।
संसद के केंद्रीय कक्ष में संविधान दिवस पर आयोजित समारोह को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने किसी दल विशेष का नाम लिए बगैर इस आयोजन का बहिष्कार करने वाले दलों को भी आड़े हाथों लिया और इस पर चिंता जताते हुए कहा कि संविधान निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान का स्मरण ना करने और उनके खिलाफ ‘‘विरोध के भाव’’ को यह देश स्वीकार नहीं करेगा।
उन्होंने कहा कि संविधान की भावनाओं को चोट पहुंचाए जाने की घटनाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, इसलिए हर वर्ष संविधान दिवस मनाकर राजनीतिक दलों को अपना मूल्यांकन करना चाहिए।उन्होंने कहा, ‘‘अच्छा होता कि देश आजाद होने के बाद… 26 जनवरी के बाद (संविधान लागू होने के बाद)…देश में संविधान दिवस मनाने की परंपरा शुरू होती।’’
उन्होंने कहा कि ऐसा होता तो एक जीवंत इकाई और सामाजिक दस्तावेज के रूप में संविधान एक बहुत बड़ी ताकत के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी काम आता। उन्होंने कहा, ‘‘लेकिन कुछ लोग इससे चूक गए।’’
प्रधानमंत्री ने कहा कि जब वर्ष 2015 में उन्होंने संसद में बाबा साहब आंबेडकर की 125 वीं जयंती पर संविधान दिवस मनाने का प्रस्ताव रखा था, उस वक्त भी इसका विरोध किया गया था।
उन्होंने कहा, ‘‘विरोध आज भी हो रहा है… उस दिन भी हुआ था। बाबा साहेब आंबेडकर का नाम हो और आपके मन में विरोध का भाव उठे, देश यह सुनने को तैयार नहीं है। अब भी बड़ा दिल रखकर, खुलेमन से …बाबा साहब आंबेडकर जैसे मनीषियों ने जो देश को दिया है, इसका स्मरण करने को तैयार ना होना, यह चिंता का विषय है।’’
भारत की संवैधानिक लोकतांत्रिक परंपरा में राजनीतिक दलों के महत्व का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि वह संविधान की भावनाओं को जन-जन तक पहुंचाने का एक प्रमुख माध्यम भी हैं।
उन्होंने कहा, ‘‘… लेकिन संविधान की भावना को भी चोट पहुंची है, संविधान की एक-एक धारा को भी चोट पहुंची है, जब राजनीतिक दल अपने आप में, अपना लोकतांत्रिक चरित्र खो देते हैं। जो दल स्वयं का लोकतांत्रिक चरित्र खो चुके हों, वह लोकतंत्र की रक्षा कैसे कर सकते हैं?’’
उन्होंने किसी दल का नाम लिए बगैर कहा कि यदि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आज के राजनीतिक दलों को देखा जाए तो भारत एक ऐसे संकट की तरफ बढ़ रहा है, जो संविधान के प्रति समर्पित ओर लोकतंत्र के प्रति आस्था रखने वाले लोगों के लिए चिंता का विषय है।
उन्होंने कहा, ‘‘… और वह है पारिवारिक पार्टियां…राजनीतिक दल… पार्टी फॉर द फैमिली, पार्टी बाय द फैमिली…अब आगे कहने की जरूरत मुझे नहीं लगती है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक राजनीतिक दलों की ओर देखिए। यह लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है। संविधान हमें जो कहता है, उसके विपरीत है।’’
उन्होंने पारिवारिक पार्टियों की व्याख्या भी की और कहा कि योग्यता के आधार पर व जनता के आशीर्वाद से किसी परिवार से एक से अधिक लोग राजनीति में जाएं, इससे पार्टी परिवारवादी नहीं बन जाती। उन्होंने कहा, ‘‘लेकिन जो पार्टी पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार चलाता रहे, पार्टी की सारी व्यवस्था परिवारों के पास रहे तो वह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा संकट होता है।’’
उन्होंने देश में इस बारे में जागरूकता लाने की आवश्यकता पर बल दिया और जापान में इसी प्रकार के एक प्रयोग का उल्लेख किया और कहा, ‘‘लोकतंत्र को समृद्ध करने के लिए हमें भी हमारे देश में ऐसी चीजों की ओर जाने की आवश्यकता है, चिंता करने की आवश्यकता है, देशवासियों को जगाने की आवश्यकता है।’’
प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में राजनीति में भ्रष्टाचार का मुद्दा भी उठाया और ‘‘राजनीतिक स्वार्थ’’ के कारण दोष सिद्ध हो चुके लोगों का कथित तौर पर महिमामंडन किए जाने पर चिंता जताई।
उन्होंने कहा, ‘‘क्या हमें ऐसी समाज व्यवस्था खड़ी करनी है? भ्रष्टाचार का अपराध सिद्ध हो चुका हो उसे सुधरने का मौका दिया जा सकता है, लेकिन सार्वजनिक जीवन में उसे प्रतिष्ठा देने की जो प्रतिस्पर्धा चल पड़ी है, मैं समझता हूं कि अपने आप में नए लोगों को लूटने के रास्तों पर जाने के लिए मजबूर करती है। हमें चिंतित होने की जरूरत है।’’
आजादी के 75 वर्ष के उपलक्ष्य पर देश में मनाए जा रहे ‘‘अमृत महोत्सव’’ का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री ने देशवासियों से कर्तव्य पथ पर चलने का आग्रह किया।
उन्होंने कहा कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी आजादी के आंदोलन में अधिकारों के लिए लड़ते हुए भी, सफाई, शिक्षा, नारी सशक्तीकरण जैसे विचारों व कर्तव्यों के लिए देश को तैयार करने की कोशिश की थी।
उन्होंने कहा कि आजादी के बाद महात्मा गांधी ने कर्तव्य के जो बीज बोए थे, वह अब तक वटवृक्ष बन जाने थे, लेकिन दुर्भाग्य से शासन व्यवस्था ऐसी बनी कि उसने अधिकार की ही बातें की और जनता को गुमराह किया।
उन्होंने कहा, ‘‘अच्छा होता अगर देश के आजाद होने के बाद कर्तव्य पर बल दिया गया होता, तो अधिकारों की अपने आप रक्षा होती, क्योंकि कर्तव्य से दायित्व व सामाजिक जिम्मेदारी का बोध होता है, जबकि अधिकार से कभी-कभी याचक भाव का बोध होता है।’’