लोक लुभावने बजट से सचिन पायलट भी कम आशंकित नहीं

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-कृष्ण बलदेव हाडा-

मुख्यमंत्री पद हासिल करने के लिए बीते चार सालों में की गई भरसक कोशिशों के बावजूद प्रदेश के कांग्रेस के विधायकों की असहमति और केंद्रीय नेतृत्व की प्रदेश के नेतृत्व को बदलने में अरुचि के कारण पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट की बयानबाजी अब महज जुबानी जमा-खर्च ही रह गई है।

प्रदेश में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव के कारण सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनीतिक सरगर्मियां के बीच राजस्थान विधानसभा में अगले वित्त वर्ष के लिए प्रस्तुत बजट में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जिस तरह से एक के बाद एक ताबड़तोड़ तीन चरणों में राहत का पिटारा खोलते हुए जिस तरह आम जनता खासतौर से महिलाओं, किसानों और बढ़ते विद्युत खर्च से दिन-प्रतिदिन परेशान होने वाले निम्न और निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों को राहत पहुंचाई है, उससे मुख्य प्रतिपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी का बौखलाना तो एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया का हिस्सा हो सकता है।

लेकिन एक ताजा बयान में पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट ने उनके मन की इस व्यथा को उजागर कर दिया है कि यदि कहीं चुनावी साल में की गई घोषणाओं के बलबूते पर और आपसी अंतर्कलह में उलझी भारतीय जनता पार्टी के पिछड़ जाने की स्थिति में यदि फिर कांग्रेस लगातार दूसरी बार सत्ता की दहलीज तक जा पहुंची तो उनका अपना राजनीतिक भविष्य क्या होगा?

वैसे भी यह तो स्पष्ट है ही कि सचिन पायलट लाख कोशिश कर ले लेकिन राजस्थान विधानसभा का अगला चुनाव कांग्रेस मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में ही लड़ेगी। भले ही अभी उन्हें अगले मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया हो। लेकिन गाहे-बगाहे प्रदेश के प्रभारी हरजिंदर सिंह रंधावा सहित पार्टी के केंद्रीय नेता तक अप्रत्यक्ष रूप से इस आशय के संकेत बीते कुछ समय में देते रहे हैं कि चुनाव तो अशोक गहलोत के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा।

इन्ही संकेतों के बीच अशोक गहलोत ने अपने “मास्टर स्ट्रोक” की तरह इस विधानसभा के कार्यकाल में वित्त मंत्री के रूप में अपना लोकलुभावन बजट पेश किया है, जिसके प्रावधानों ने उनके सभी 20 प्रतिपक्षियों को हतप्रभ कर दिया है। खास तौर से अपने बजट के तीसरे चरण में एक ही साथ ऐतिहासिक फैसला करते हुए राजस्थान में 19 नए जिलों के गठन की घोषणा करके भारतीय जनता पार्टी में उनके कई विरोधी विधायकों-नेताओं तक को दबे स्वर में सराहना करने को मजबूर कर दिया है।

कांग्रेस के दर्जनों विधायकों की तो बात ही और है। भिवाड़ी जैसे औद्योगिक क्षेत्र को पृथक जिला नहीं बनाए जाने से कुछ विरोधाभास जरूर है लेकिन ऐसे मसलों पर नाराजगी भी चुनिंदा कांग्रेस नेताओं-विधायकों तक ही सीमित है और इसका ज्यादा असर होने वाला नही है।

मुख्यमंत्री के बजट और उसके बाद प्रदेश में हुई सकारात्मक प्रतिक्रिया के चलते पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट की नई दिल्ली के एक निजी टीवी चैनल को दिए साक्षात्कार में पीड़ा टुकड़े टुकड़े में कहे गए इन शब्दों के रूप में झलक रही है कि-” अगले विधानसभा चुनाव के बाद कौन-कब-किस पद पर बैठेगा, इस बारे में अंतिम निर्णय पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व ही करेगा….. मुझे तो बीते 20 सालों में पार्टी ने जो भी जिम्मेदारी दी है, उसे निभाया है।

पार्टी में कोई पार्टी से कोई शिकायत नहीं है। पार्टी ने बीते 20 सालों में मौके देने में कोई कमी नहीं रखी। विधायक, सांसद, मंत्री, प्रदेश अध्यक्ष, उप मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया…..वैसे भी मैं पद के लिए राजनीति नहीं करता…..विधायक दल की बैठक में कई फैसले होते हैं। 25 सितंबर को जयपुर में बैठक होनी थी, लेकिन होने नहीं दी गई….. इसके बाद भी बैठक नहीं हो रही है।

अब यह तो केंद्रीय नेतृत्व ही देखे कि विधायक दल की बैठक क्यों नहीं होने दी जा रही है।…… छह महीने पहले पार्टी नेतृत्व ने तीन नेताओं को नोटिस दिए थे, लेकिन अभी तक अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं हुई, जबकि उस समय जो घटना घटी थी, उसे पार्टी नेतृत्व ने भी गलत माना था और तभी तो नोटिस दिए थे, फिर कार्यवाही क्यों नहीं हो रही?

सचिन पायलट इस बात से सबसे ज्यादा आहत नजर आते हैं कि कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के निर्देश पर पर्यवेक्षक के रुप में भेजे गए मलिकार्जुन खड़गे और प्रदेश के प्रभारी अजय माकन की ओर से बीते साल 25 सितंबर को बुलाई विधायक दल की बैठक का बहुसंख्यक पार्टी विधायकों ने बहिष्कार तो किया ही साथ ही में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के विश्वस्त मंत्री शांति धारीवाल के आवास पर समानांतर बैठक करके न केवल अशोक गहलोत के नेतृत्व में आस्था व्यक्त कर दी बल्कि सचिन पायलट के नेतृत्व को स्पष्ट शब्दों में ठुकरा दिया है।

सचिन पायलट की पीड़ा यह है कि इन बीते सालों में उनके छटपटाहट भरे प्रयासों के बावजूद अभी तक बहुसंख्यक विधायक अशोक गहलोत के साथ ही बने हुए हैं। ऐसे में अगर अगला चुनाव भी अशोक गहलोत के नेतृत्व में लड़ा गया तो उनका और उनके समर्थकों का क्या होगा?