चुनावी बॉन्ड खरीदारों के नाम गोपनीय रहेंगे, बैंकिंग नियम सुप्रीम कोर्ट के आदेश में बाधा

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नई दिल्ली। Electoral Bond: उच्चतम न्यायालय ने भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) को 2018 से जारी होने वाले चुनावी बॉन्ड के विवरण का खुलासा करने का आदेश दिया है लेकिन सूत्रों का कहना है कि बैंकिंग प्रणाली से जुड़े नियम इन बॉन्ड के खरीदारों का नाम उजागर करने में बाधा बन सकते हैं।

न्यायालय के फैसले को लागू करने से सरकार द्वारा बॉन्डधारकों के नाम गोपनीय रखे जाने का वादा टूट सकता है और सूत्रों का भी मानना है कि ऐसा ही होगा।सूत्रों ने यह भी कहा कि उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद की स्थिति को देखते हुए सरकार द्वारा अध्यादेश लाने की संभावना नहीं है क्योंकि 17वीं लोक सभा का अंतिम सत्र समाप्त हो चुका है और लोकसभा चुनाव निकट है।

सूत्रों का कहना है कि इस फैसले से राजनीतिक दलों के चंदे में फिर से काला धन की वापसी होगी। उनका कहना है कि जिनके पास काला धन है वे बने रहेंगे। सूत्रों में से एक ने कहा, ‘इससे पुराना दौर वापस आ जाएगा।’ सूत्रों का कहना है कि वर्ष 2018 में अधिसूचित चुनावी बॉन्ड योजना भले ही आदर्श योजना नहीं मानी जाती थी, लेकिन यह उस समय के मौजूदा चुनावी चंदे के तौर-तरीकों में सुधार के तौर पर नजर आया था।

उनका तर्क है कि उच्चतम न्यायालय इसे सुधार के तौर पर देख सकता था और आगे सुधार के लिए कह सकता था। लेकिन चुनावी बॉन्ड को खत्म करने के अदालत के फैसले से पूरा चुनावी सुधार ही प्रभावित होगा। सूत्रों ने यह भी कहा कि उस समय बॉन्ड खरीदारों के नामों को उजागर करना मुश्किल था क्योंकि इससे स्थानीय स्तर पर उत्पीड़न जैसी घटनाओं की आशंका थी।

यह पूछे जाने पर कि क्या सरकार उच्चतम न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर करेगी, इस पर सूत्रों ने कहा कि जो लोग जनहित याचिका दायर कर रहे हैं उन्हें आगे आकर ऐसा करना चाहिए।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के संस्थापक जगदीप छोकर इस मामले में प्रमुख याची थे। उन्होंने कहा कि योजना को लागू करने के लिए संशोधित किए गए प्रासंगिक कानूनों को अदालत ने खारिज कर दिया है और बैंकिंग नियमों की आड़ का सहारा लेने का कोई मतलब नहीं है।

उन्होंने बताया कि योजना को लागू करने वाले सभी कानूनी प्रावधान, चाहे वह कंपनी अधिनियम, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम या आयकर कानून के प्रावधान हों उन्हें अदालत ने असंवैधानिक घोषित कर दिया है।

वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े भी इस योजना के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर करने वाले याची थे। उन्होंने कहा कि एक बार जब अदालत ने योजना को लागू करने के कानून में किए गए विभिन्न संशोधनों को खारिज कर दिया है तब बैंकिंग के कामकाज का हवाला नहीं दिया जा सकता है। उन्होंने कहा कि आदेश का पालन करना ही होगा।

उन्होंने कहा कि काला धन इस योजना की शुरुआत के पहले भी था और उसके बाद भी। घाटे में चल रही कंपनियों समेत जिन्होंने कर नहीं चुकाया था उन्हें भी इस योजना में हिस्सा लेने की अर्हता प्राप्त थी। ऐसे में यह कहना सही नहीं है कि इस योजना ने चुनावी फंडिंग में काले धन को रोका।

छोकर ने कहा कि जब स्टेट बैंक निर्वाचन आयोग के साथ जानकारी साझा करेगा तब क्विड प्रो क्वो (यानी धन के बदले फायदा मिलना) को परखना अहम होगा। उन्होंने कहा, ‘फायदे का निर्धारण कितना मुश्किल या आसान होगा यह इस बात पर निर्भर करेगा कि किस तरह के आंकड़े सामने आते हैं।’

इस बारे में कोई आंकड़े नहीं हैं जो बताएं कि कोई बॉन्ड एक से दूसरी जगह गया या नहीं लेकिन बॉन्ड खरीदने वाले व्यक्ति को कुछ हद तक जवाबदेह ठहराया जा सकता है।

संविधान विशेषज्ञ और लोक सभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचारी ने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा कि तकनीकी तौर पर केंद्र सरकार अध्यादेश लाकर और एक दिन के लिए सदन आहूत करके विधेयक पारित कर सकती है।

उन्होंने कहा, ‘इस बारे में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। अगर सरकार इस राह पर चलती है तो उसे जानकारी मुहैया कराने से मना करने के लिए विधिक आधार तलाशना होगा क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि यह योजना अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत उल्लिखित मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है।’