तप व तपस्या से ही आत्मा पवित्र होती है: आर्यिका सौम्यनन्दिनी

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कोटा। महावीर नगर विस्तार योजना स्थित दिगंबर जैन मंदिर में चल रहे आर्यिका सौम्यनन्दिनी माताजी संघ के पावन वर्षायोग के अवसर पर माताजी ने प्रवचन करते हुए समवशरण की महिमा का वर्णन किया। समवशरण का शाब्दिक अर्थ है जहां सबको समान अवसर मिले एवं समान रूप से शरण मिले, वह समवशरण है।

यह तीर्थंकर भगवान की धर्मसभा है, तीर्थंकर भगवान केवल ज्ञान के बाद जहां तत्वोपदेश देते हैं। वह समवशरण है जो एक बार भगवान की शरण में चला जाता है उसका भव भ्रमण अपने आप छूट जाता है, और बार-बार संसार में आवागमन का चक्र नहीं होता। महावीर बिहार में भगवान के तीन-तीन समवशरण विराजमान हैं।

माताजी ने बताया की जिसका पूर्व पुण्य है वही पुण्यवान जीव भव्य आत्मा इस धर्म सभा में उपस्थित है। भगवान को अष्ट द्रव समर्पित करने का महत्व भी बताया। प्रवचन में बताया कि 84 लाख योनियों में भ्रमण करने के पश्चात मनुष्य पर्याय प्राप्त हुई है तो विशुद्ध भावनाओं के साथ सिद्धों की आराधना करके अपनी आत्मा का कल्याण करें एवं मनुष्य पर्याय को सार्थक बनाएं। जीव दया बिना आत्मा का कल्याण संभव नहीं है।

मानव को जीवन में सदैव ही जीवों की हिंसा से बचाना होगा। जीवदया सुखी जीवन का प्रमुख आधार होता है। जीव दया मनुष्य के जीवन को दुख से सुख में परिवर्तन कर देती है। उन्होंने कहा कि जीवदया का फल कभी निष्फल नहीं जाता है। धर्म को लक्ष्य बनाकर सही दिशा में आगे बढ़ने से सफलता मिलती है।

पुण्य कर्म करने से ही मानव जीवन में सुखों का संचार होता है। तप व तपस्या से ही आत्मा पवित्र होती है। इससे ही परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। गुरु के सम्मान से ही मानव को जीवन में सफलता व संस्कार मिलते है। गुरु के ज्ञान के बिना जीवन में कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। गुरु मानव जीवन में आने वाले दुखों को दूर करते हैं।