– श्री श्री रविशंकर, आध्यात्मिक गुरु
दिमाग से दिमाग को समझा जाता है और दिल से दिल को समझा जाता है. नाक केवल सूंघ ही सकती है, आंखें केवल देख ही सकती हैं, कान केवल सुन ही सकता है, कान देख नहीं सकता. इसी तरह दिल महसूस कर लेता है.
हम दिमाग में दिल लगाने की और दिल में दिमाग को डालने की कोशिश करते हैं, जिससे कुछ नहीं हो पाता. दिल सुंदरता को महसूस कर लेता है, जबकि दिमाग केवल कहता है कि यह सुंदर है.हम मन में सुंदर शब्द को केवल पकड़ लेते हैं किंतु उसे महसूस नहीं कर पाते. हम केवल ‘सुंदर’ शब्द को दोहरा रहे होते हैं.
सिर में सुंदर शब्द को दोहराने से सुंदरता महसूस नहीं होती है. प्रेम में भी यही बात है. तुम प्रेम में कुछ ज्यादा ही बोल जाते हो और दिमाग के स्तर में ही अटके रहते हो और दिल में कुछ होता हीन हीं है.मौन में प्रेम बरसता है, उसका विकरण होता है. अपनी प्रिय वस्तु या लोगों के साथ हमें अपने स्वरूप का अनुभव होता है. यही कारण है कि जब हम अपनी किसी प्रिय चीज को खोते हैं तब हमें दुख होता है और दर्द महसूस होता है.
मान लो कि तुम्हें अपने पियानो से प्यार है और तुम्हें यह सुनने को मिले कि तुम्हारे पियानो को कुछ हो गया, तो तुम्हारे अंदर से कुछ कट जाता है. या अगर तुम्हारी गाड़ी या तुम्हारे कुत्ते को कुछ हो गया, तो तुम्हें लगता है कि कुछ खो गया है.तुम केवल अपने शरीर से ही नहीं जुड़े हुए हो, बल्कि वहां भी तुमने अपना घर बसा लिया है. यदि हम अपने अस्तित्व का इतना अधिक विस्तार कर लें जिसमें पूर्ण सृष्टि समा जाए तब हमें कुछ भी खोने का अहसास नहीं होगा और हम जान लेंगे कि हम संपूर्ण हैं.