-कृष्ण बलदेव हाडा-
कोटा। अपनी राजनीतिक विचारधारा विकास-परिवर्तन विरोधी सोच के लोग और खासतौर पर भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग या उनके नेता अकसर यह यह कह कर भ्रम की स्थिति पैदा करने से नही चूकते कि कोटा शहर में जो भी कुछ विकास या सौंदर्यकरण के कार्य हो रहे हैं, वह सब केंद्र सरकार की मेहरबानी पर निर्भर है। क्योंकि केंद्र सरकार ने ही कोटा शहर को स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित करने के लिए धन दिया था, जिसे राज्य सरकार खर्च कर रही है।
वे यह कहने से भी नही चूकते कि वित्तीय संसाधन केन्द्र सरकार के हैं लेकिन इन सारे विकास और सौंदर्यीकरण के कार्यों का श्रेय कोटा उत्तर से कांग्रेस के विधायक और राज्य सरकार में नगरीय विकास एवं स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल लेने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन यह भ्रम की स्थिति टूट जानी चाहिए क्योंकि कोटा शहर के विकास कार्यों में जो धन खर्च किया जा रहा है, उसमें स्मार्ट सिटी का हिस्सा महज कुछ ही प्रतिशत है।
बाकी एक बड़ी राशि श्री धारीवाल के प्रयासों और उनकी प्रगतिशील सोच का नतीजा है। जिसके चलते कोटा शहर के स्वायत्तशासी निकाय ने स्वयं अपने संस्थागत संसाधनों के बूते धन एकत्रित कर करोड़ों रुपए की राशि खर्च कर शहर को एक पर्यटन नगरी के रूप में नए स्वरूप देने की एक अहम कोशिश की हैं।
कोटा को केंद्र सरकार की ओर से स्मार्ट सिटी के रूप में केवल 359 करोड़ रुपये मिले थे। जबकि कोटा शहर में मौजूदा कांग्रेस सरकार के शासनकाल के दौरान शहरी विकास और सौंदर्यीकरण के कार्यों पर 4ं500 करोड़ रुपए के लगभग की राशि खर्च की जा रही है। स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत मिले 359 करोड रुपए के बाद अतिरिक्त रूप से शहर के विकास पर खर्च की जा रही यह राशि श्री धारीवाल की प्रगतिशील सोच के तहत कोटा नगर विकास न्यास ने अपने स्वयं के संसाधनों के जरिए जुटाई है। उसी के बूते पर यह विकास किये जा रहे हैं।
यह बात शहरी विकास मंत्री शांति धारीवाल ने रविवार को दी एसएसआई एसोसिएशन के अमृतम सभागार के लोकार्पण समारोह में भी कही थी। उनका कहना था कि वह कोटा के लिए अभी भी बहुत कुछ करना चाहते हैं, लेकिन समय की कमी बताते हुए उन्होंने मिर्जा ग़ालिब का यह शेर सुनाते हुए अपने उदगार प्रकट किए –
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले।
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।।
प्रदेश की मौजूदा कांग्रेस सरकार के पिछले करीब चार साल के कार्यकाल से पूर्व राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी। उस समय न केवल कोटा संभाग के छबड़ा-छीपाबड़ोद विधानसभा सीट से निर्वाचित भारतीय जनता पार्टी के विधायक प्रताप सिंह सिंघवी राज्य सरकार में मंत्री रहे थे। बल्कि कोटा के दोनों विधानसभा क्षेत्रों से भारतीय जनता पार्टी के विधायक थे, लेकिन यदि बात करें उस सरकार के पांच सालों की तो तब के भाजपा के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के पास गिनाने के लिए कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि नहीं है।
वे सिर्फ उनके कार्यकाल में शहर में नाली-पटान करवाने, सीसी रोड बनवाने के दावे करते हैं, जो काम विधायक के नहीं बल्कि पार्षदों का है। केवल एक कोटा बैराज की समानांतर पुलिया को एक अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में जरूर गिनाते हैं लेकिन उपलब्ध जानकारियां बताती हैं कि यह काम भी उस समय मंजूर होकर चालू करवाने की स्थिति में था जब पिछली कांग्रेस शासनकाल के दौरान श्री धारीवाल ही मंत्री थे और कोटा नगर विकास न्यास में रविंद्र त्यागी अध्यक्ष थे।
यह अलग बात है कि उस कार्यकाल में भी योजना बनी थी, लेकिन बाद में जब सत्ता बदली और भाजपा की सरकार आई तो उसका काम भाजपा के शासन काल में शुरू हुआ और बनकर तैयार होने के बाद फ़ीता भी भाजपा के नेताओं ने ही काटा। इसलिए वे उसे अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में गिनाते हैं। , उस पुलिया की सोच भी कांग्रेस सरकार के शासन की ही देन थी।
प्रतापसिंह सिंघवी तो मंत्री के रूप में कोटा की तो दूर की बात है, अपने विधानसभा क्षेत्र के दो प्रमुख नगरों छबड़ा, छीपाबड़ोद का भी वहां की आवश्यकताओं के अनुरूप विकास कार्य नहीं करवा पाए। भाजपा के शासनकाल के दौरान कोटा नगर विकास न्यास में पार्टी का अपने मनोनीत अध्यक्ष थे, लेकिन उनका केवल कार्यकाल शिलापट्ट लगाने और पहले से चल रहे कामों के पूरे होने के बाद फीते काटने में भी निकल गया।
कोटा के विकास के लिए केंद्र सरकार से आए फंड की बात की जाए तो यह फंड उस समय भी आया था, जब प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी, लेकिन विकासवादी सोच के अभाव में किसी भी तत्कालीन जनप्रतिनिधि ने इस दिशा में सार्थक कदम उठाने की कोई कोशिश नहीं की।
एक कोशिश दिल्ली की तर्ज पर कोटा में पालिका बाजार के रूप में विकसित करने के लिहाज से कोटा के दशहरा मैदान में की गई, जिसका नतीजा यह निकला कि वह पालिका बाजार तो नहीं बना अलबत्ता पुलिस कंट्रोल रूम, पुलिस थाना, नगर निगम भवन जैसे सीमेंट के कंक्रीट के जंगल खड़े हो जाने से दशहरा मैदान एक संकुचित दायरे में सिमट कर रह गया है।
दशहरा मेला आयोजन के समय के लगभग एक माह को छोड़कर बाकी अवसरों पर यह पूरा मेला परिसर अनुपयोगी रहता है। अब यह न दशहरा मैदान रह गया है और न ही पालिका बाजार के रूप में विकसित हो पाया है।