कोटा। छप्पन भोग परिसर में बिरला व अग्रवाल परिवार की ओर से आयोजित भागवत कथा ज्ञान यज्ञ में कथा वाचक गिरिशानन्द महाराज ने बुधवार को श्रद्धालुओं को जड़भरत चरित्र एवं प्रहलाद चरित्र प्रसंग का श्रवण कराया। कथा के तीसरे दिन भी कथा परिसर में श्रद्धालु भक्ति रस में डूबे रहे।
रतनारे श्याम के नैन, जादू कर डारो… बजाओ राधा नाम की ताली…जमना जी रो पानी मीठो लागे.. भजन पर श्रद्धालु थिरकते रहे। गिरिशानन्द महाराज ने प्रभु भक्ति की महिमा बताते हुए कहा कि जीवन में विकट परिस्थितियों में जब अपने साथ छोड़दे, सारे मार्ग बंद हो जाए लेकिन प्रभु का सिमरन करने से सभी दुख दूर हो जाएंगे। इसी प्रकार संतो की शरण में जाने से भी जीवन का उद्धार होता है।
प्रहलाद चरित्र का प्रसंग सुनाते हुए महाराज गिरिशानंद ने कहा कि प्रहलाद जी ने संसार को यह संदेश दिया कि नारायण की भक्ति की कोई उम्र नहीं होती। हिरण्यकश्यप ने भक्त प्रहलाद को नारायण भक्ति से रोकने के लिए लाख जतन किए, लेकिन वे उनका रास्ता नहीं रोक सके।
उन्होंने अपने पिता का सम्मान भी किया लेकिन नारायण को भी नहीं छोड़ा। जब उनके गुरू ने पूछा कि क्यों तुम अपने पिता के शत्रु की भक्ति करते हो तो उन्होंने कहा कि नारायण के चरण चुम्बक और मेरा मन लोहा है, इसलिए मैं तो स्वयं उनकी ओर खिचां चला जाता हूं।
कथावाचक गिरिशानंद महाराज ने कहा कि मनुष्य जीवन कर्मों का फल है, इसे परमार्थ में लगाइए। ऋषभ देव महाराज प्रसंग को बताते हुए कहा कि अगर बच्चों को अच्छे संस्कार देना चाहते हो औऱ गुणी बनाना चाहते हो तो पहले वैसा ही बनना पड़ेगा।
राजा-प्रजा में भेद नहीं, दोनों ही माटी के पुतले
संसार में सब प्राणी एक समान है न धनवान-निर्धन में कोई भेद संभव है और नहीं राजा प्रजा में, दोना ही माटी के पुतले ही हैं। जड़ भरत जी महाराज के तीन जन्मों का वर्णन और राजा रहूगण प्रसंग को बताते हुए महाराज गिरिशानंद ने यह बात कही। महाराज जड़भरत को जब राजा रहूगण ने उन्हें पालकी उठाने के काम में लगा दिया, लेकिन कभी तेज और कभी धीरे चलने से शेष कहारों को जब असहजा महसूस हुई तो राजा ने जड़भरत का यह कहते हुए प्रतीकार किया तुम प्रजा हो राजा कि आज्ञा का पालन करना तुम्हरा कर्तव्य है, इस पर जड़भरत ने कहा तुम राजा हो और मैं प्रजा लेकिन तुम सदा के लिए राजा नही रहोगे और मैं सदा के लिए प्रजा नही रहूंगा। राजा रहूगण को अपनी अज्ञानता का ज्ञान हुआ और उन्होंने अपनी भूल पर क्षमा मांगी।
अमृत के लिए लांघनी होगी बाधाएं
कथावाचक गिरीशानन्द महाराज ने समुद्रमंथन प्रसंग सुनाते हुए कहा कि समुद्रमंथन की सबसे बड़ी बाधा हलाहल थी। भगवान शंकर ने विष पान कर समुद्रमंथन की राह आसान बनाई और देवताओं को अमृत की प्राप्ति हुई । इसी प्रकार प्रभु और भक्त के बीच में जो सांसारिक मोहमाया है उसे दूर करने से ही प्रभु शरण रूपी अमृत की प्राप्ति होगी। गिरिशानन्द जी ने बताया कि जब दैत्यों ने देवताओं की सम्पत्ति उनसे छीन ली तो तब सभी देवताओं ने इस स्थिति से बचने के लिए भगवान विष्णु की शरण ली।
भगवान विष्णु ने समुद्र मंथन के लिए देवताओं को दैत्यों से मित्रता करने को कहा। इस मित्रता से हुए समुद्र मंथन से देवताओं की समस्या का हल निकला अर्थात दूसरे की सम्पत्ति छीनने के लिए किया गया छल अधर्म है लेकिन अपनी सम्पत्ति वापस लेने के लिए किया गया छल नीति संगत है।
आयोजक डॉ. अमिता बिरला,अपर्णा अग्रवाल, बिरला व अग्रवाल परिवार ने विधिवत भागवत पूजन किया। वामन भगवान की पूजा के उपरांत अराध्य श्री कृष्ण की आऱती के साथ कथा का समापन हुआ।