वसुंधरा दिवसः किसने बिगाड़ा धरती का स्वरूप?

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    पृथ्वी जनसंख्या के बोझ से कराहने लगी है तो हमें पृथ्वी दिवस भी मनाना पड़ रहा है, जिस पर चर्चा की जाए कि जिस ग्रह पर हम रह रहे हैं, उसके प्रति कुछ तो हमारी जिम्मेदारी होगी।

    -बृजेश विजयवर्गीय, स्वतंत्र पत्रकार एवं पर्यावरणविद्-

    भारतीय संदर्भ में तो धरती को माता का दर्जा दिया है। सनातन संस्कृति में सृजन का देवता ब्रह्मा जी को बताया गया है। धरती सभी का सृजन करती है। सभी धर्म में अलग अगल तरीके से महत्व दर्शाया गया है।

    यानी सबका पालन करने वाली वसुंधरा जिसे हर पवित्र कार्य शुरू करने से पहले पूजा जाता है। चाहे भवन, घर, बनाना हो या उद्योग लगाना हो या फिर स्कूल आदि। यह किसने चालू किया इसे जानने के लिए तो आध्यात्म और पुराणों में गहराई से जाना पड़ेगा ।

    22 अप्रेल को समूचे विश्व में 53वां वसुंधरा दिवस मनाया जा रहा है। 1970 में पहली बार अमरीकी पर्यावरण कार्यकर्ता सीनेटर गेलार्ड नेक्सन ने 1969 में भयंकर तेल रिसाव के बाद जब धरती की हालत देखी तो मन विचलित हुआ। उनकी पहल पर ही अब विश्व समुदाय पृथ्वी दिवस मनाता है।

    धरती की आज जो हालत है वह किसी से छिपी हुई नहीं है। बढ़ती जन संख्या के दबाव से एवं लालची हो रहे विकास के कारण धरती पर से जंगल ही नहीं कृषि भूमि को भी समाप्त किया जा रहा है।

    आबादी बढ़ाने में तो हम चीन को पछाड़ ही चुके है। वनों की बात इसलिए कि वनों से ही कृषि है। कृषि की धाय मां वनों को ही माना गया है। आबादी का पेट तो अन्न उत्पादन से ही भरेगा न कि मांस भक्षण से। विकसित और विकासशील देशों में खनिज तत्वों के कारण माइन्स और मिनरल्स अस्तित्व में आए और धरती पर वेध और अवैध खनन से संपत्ति बनने का खेल खूब चल रहा है। विकास के बहाने पहाड़ों को सपाट कर मैदान बनाने की प्रवृत्ति खूब चल रही है तो जल प्रवाहित करने वाली नदियां कहां से बहेंगी।

    हम रूद्रप्रयाग और जोशीमठ की घटनाओं से भी नहीं सीखना चाहते जहां विकास के धमाकों ने हिमालय को ही दरका दिया। अरावली पर्वत श्रृंखलाओं पर लूट का साम्राज्य है। नदियों और पहाड़ों को बचाने के लिए साधु संतों को आत्मदाह करना पड़ता है।

    पर्यावरणीय चेतावनियों को अनसुना करना तो शासक वर्ग की आदत सी बन गई है। समस्त कानून और न्यायालय दिखावटी हो कर रह गए है। हिमालय काउंसिल की चेयरपर्सन इंद्रा खुराना और अरावली आंदोलन की नीलम अहलूवालिया जैसी महिला शक्ति को नमन की वे पहाड़ों के लिए व्यवस्था से टकरा रहीं है।

    प्राकृतिक पहाड़ों को खत्म कर कचरे के पहाड़ हर शहर कस्बे और गांवों में तैयार हो गए हैं। धरती की खूबसूरती को प्लास्टिक पाॅलीथीन का कचरा बदरंग बना रहा है। नदियां तो मैला ढोने वाली मालगाड़ियां बन गई हैं। खनन के गड्ढे धरती पर फफोलों की तरह हैं । पेट भरने वाली खेती रासायनिक हो रही तो स्वास्थ्य को कैंसर तो होना ही है। जब शिक्षा ही प्रकृति का शोषण करना सिखाती हों तो आने वाले समय का अंदाज लगा सकते हैं कि धरती कहां तक सहन करेगी।

    प्रकृति का संतुलन कायम रहता है तो कोई बात नहीं। अब जब पृथ्वी जनसंख्या के बोझ से कराहने लगी है तो हमें पृथ्वी दिवस भी मनाना पड़ रहा है, जिस पर चर्चा की जाए कि जिस ग्रह पर हम रह रहे हैं, उसके प्रति कुछ तो जिम्मेदारी होगी।

    धरती को पूजने वाला समाज धरती के संरक्षण के प्रति कितना गैर जिम्मेदार हो सकता है? धरती की हालत देख कर समझ सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि सरकारें कुछ नहीं कर रही, लेकिन विकास एवं पर्यावरण में सतुंलन को कायम नहीं रखा जा रहा जो कि असंभव नहीं है।

    सवाल है कि नई पीढ़ी को हम किस प्रकार की धरती विरासत में दे कर जा रहे हैं । जहां बढ़ता तापमान ग्लोबल वार्मिंग लोगों को डरा रहा है। नदियां सूख रही हैं या बाढ़ का कारण बन रही हैं । कहीं बाढ़ तो कहीं सुखाड़? जलवायु परिवर्तन से आमजन ही नहीं वैज्ञानिक भी चिंतित हैं।

    जलवायु परिवर्तन अब विशेषज्ञों का विषय नहीं रहा सीधा आमजन को प्रभावित कर रहा है। अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है तो सकल घरेलू उत्पाद भी घट रहा है। स्वास्थ्य भी लोगों को धोखा देने लगा है। वैश्विक महामारियों की जड़ में जायें तो समझ सकते हैं कि हमने धरती के साथ कितना बड़ा खिलवाड़ किया है।

    विश्व जन आयोग बाढ़ सुखाड़ (डब्ल्यूपीसीएफडी )के चेयरमेन डाॅ. राजेंद्र सिंह कहते हैं कि विद्या प्रकृति का पोषण सिखाती है और हमारे आधुनिक शिक्षण संस्थान शोषण की शिक्षा देते है। सवाल है कि हमारे नीति निर्धारकों और जिम्मेदारों को रास्ता नहीं सूझ रहा या संतुलन का रास्ता बनाने में कोई बड़ी समस्या है? इन सवालों का जवाब तो जिम्मेदारों को ही देना है।