नई दिल्ली। देशद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता पर सुप्रीम कोर्ट 5 मई को सुनवाई करने वाला है। पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी द्वारा दायर इस याचिका में यह तर्क दिया गया था कि इस कानून का “भारी दुरुपयोग” हो रहा है। वहीं कोर्ट ने इस मामले में केंद्र से इस हफ्ते तक जवाब मांगा है।
केंद्र की ओर से सालिसिटर जनरल तुषार मेहता द्वारा जवाब दाखिल करने के लिए दो दिन की मांग की गई थी जिसके बाद याचिकाओं पर जवाब दाखिल करने के लिए केंद्र को इस सप्ताह के अंत तक का समय दिया गया है। कोर्ट ने मामले को 5 मई को अंतिम सुनवाई के लिए पोस्ट करते हुए यह भी स्पष्ट कर दिया है कि मामले में आगे कोई स्थगन नहीं दिया जाएगा।
पिछले साल, CJI रमणा ने आजादी के 75 साल बाद भी देशद्रोह कानून की आवश्यकता पर केंद्र सरकार से सवाल किया था और कहा कि यह औपनिवेशिक कानून था जिसका इस्तेमाल स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ किया गया था। कोर्ट ने कहा कि महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ राजद्रोह कानून का इस्तेमाल किया गया था, शीर्ष अदालत ने केंद्र की ओर से पेश अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल से पूछा था कि इसे क्यों नहीं बदला जा सकता है।
कोर्ट ने बढ़ई का दिया उदाहरण: अटार्नी जनरल ने पीठ से सुनवाई के दौरान कहा था कि धारा 124ए को खत्म करने की जरूरत नहीं है और केवल दिशा-निर्देश निर्धारित करने की जरूरत है ताकि धारा अपने कानूनी उद्देश्य को पूरा कर सके। वहीं सीजेआई ने इसके जवाब में कहा कि, “राजद्रोह कानून का इस्तेमाल बढ़ई को लकड़ी का टुकड़ा काटने के लिए आरी देने जैसा है और वह इसका इस्तेमाल पूरे जंगल को काटने के लिए करता है”। शीर्ष अदालत ने अटॉर्नी जनरल से आगे कहा था कि धारा 124ए के तहत दोषसिद्धि की दर बहुत कम है।
सरकार के खिलाफ बोलना अपराध नहीं: शौरी ने अपनी याचिका में कहा है कि “बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग करने” के लिए नागरिकों के खिलाफ मामले दर्ज किए जा रहे हैं। आईपीसी के तहत धारा 124-ए (देशद्रोह) एक गैर-जमानती प्रावधान है। इस कानून के तहत कोई भी व्यक्ति जो अपने भाषण से “भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना या असंतोष को उत्तेजित करने का प्रयास करता है” वो एक आपराधिक कार्य करता है जो आजीवन कारावास की अधिकतम सजा के साथ दंड पाने योग्य हो जाता है। शौरी ने अपनी याचिका में कहा है कि “देशद्रोह की परिभाषा अस्पष्ट है जिससे कानून प्रवर्तन एजेंसियां और पुलिस भी इसका सटीक मूल्यांकन करने में असमर्थ है”।
अंग्रेजों का कानून है ये: शौरी की ओर से अधिवक्ता प्रशांत भूषण और एनजीओ कामन काज की ओर से दायर याचिका में दावा किया गया कि राजद्रोह एक औपनिवेशिक कानून है जिसका इस्तेमाल भारत में अंग्रेजों द्वारा असहमति को दबाने के लिए किया जाता था। इससे पहले, शीर्ष अदालत ने देशद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाले पूर्व सेना अधिकारी मेजर-जनरल एसजी वोम्बटकेरे (सेवानिवृत्त) द्वारा दायर याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी किया था। एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया, पत्रकार पेट्रीसिया मुखिम और अनुराधा भसीन ने भी देशद्रोह कानून के खिलाफ शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था। अन्य याचिकाओं में एनजीओ पीयूसीएल की याचिका भी लंबित है, जिसमें कानून को खत्म करने का निर्देश देने की मांग की गई है।