कोटा। प्रत्येक आत्मा में भगवान है और आत्मा की खोज व्यक्ति को स्वयं करनी पड़ती है। यह बात दिगंबर जैन मन्दिर महावीर नगर विस्तार योजना में चातुर्मास कर रहीं आर्यिका सौम्यनन्दिनी माताजी ने प्रवचन करते हुए कही। उन्होंने राग और द्वेष को सन्मार्ग में बाधा बताते हुए कहा कि आत्मा की खोज न करने पर व्यक्ति को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति नहीं मिलती। उन्होंने कहा कि आत्मा को जानना ही आध्यात्म है। बिना आत्मा को जाने कल्याण संभव नहीं है।
उन्होंने देव दर्शन का महत्व बताते हुए कहा कि देव दर्शन से आत्मा को शांति मिलती है। माया, मान, लोभ, राग, द्वेष मन को मलिन करते हैं। बिना कारण कोई कार्य नहीं होता। विश्व में सभी कार्य अनुकूल होते हैं। उन्होंने कहा कि हमारे जीवन में संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। देवपूजन और देवदर्शन भारतीय संस्कृति के जीवंत संस्कारों के साथ ही श्रेष्ठ सदाचार भी हैं। हमारा जन्म, हमारे कार्य, हमारा मन और हमारी वाणी के द्वारा सर्वसमर्थ की सेवा करने का नाम देवार्चन है, जो हमारी संस्कृति और आस्था का केंद्र है।
हमारी देवपूजा-पद्धति पूर्णतया वैज्ञानिक और व्यावहारिक है। हमारी आस्था-ज्योति के आलोक से अज्ञानता के सघन-अंधकार को नष्ट कर शांति प्रदान करती है। देवार्चन के प्रमुख तरीकों में सूर्य भगवान को अघ्र्य, देवदर्शन, प्राणायाम, दैनिक सेवा, स्तुति, आरती, चरणोदक, घंटाध्वनि, परिक्रमा आदि क्रियाओं का प्रमुख रूप से समावेश होता है। इन क्रियाओं का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व है।
सौम्यनन्दिनी माताजी ने कहा कि जैन धर्म की विशेषता है कि सभी आत्मा में परमात्मा का वास है। स्वभाव से तो सभी परमात्मा हैं और यदि अपने को जाने-पहचाने और अपने में ही रम जाएं तो भी परमात्मा बन सकते हैं। भगवान के समोशरण से पशु, मनुष्य सभी एक साथ भगवान की दिव्य ध्वनि सुनते हैं।