नई दिल्ली। अडल्टरी कानून यानी आईपीसी की धारा 497 को गैर संवैधानिक घोषित कर सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से महिला और पुरुष दोनों के हित को सुरक्षित किया है क्योंकि यह शादी की पवित्रता पर हमला था। यही नहीं यह पत्नी को पति की जागीर बताता है और इस तरह मौजूदा वक्त में औचित्य ही खो चुका है। फैसला देने वाले जजों ने किस आधार पर इसे खारिज किया जानते हैं:
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में लिखा कि संविधान स्वायत्तता के अधिकार, गरिमा और व्यक्तिगत चॉइस की गारंटी देता है, जबकि धारा-497 आदमी और औरत को अलग-अलग देखती है। महिला को अडल्टरी के लिए आरोपी नहीं बनाया जाता क्योंकि वह तो पति की जागीर की तरह मानी गई है।
देखा जाए तो शादी के बाद महिला के अधिकार को धारा-497 सीमित कर देती है। महिला के पति की ओर से अगर संबंध बनाए जाते हैं तो महिला के शिकायत के लिए कोई फोरम नहीं है। इस तरह देखा जाए तो धारा-497 महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाता है।
यह कितना बुरा है कि तीसरे शख्स के साथ पति की अगर सहमति बन जाए तो पत्नी के साथ संबंध अपराध नहीं होगा। सेक्सुअल चाइस को थोपा नहीं जा सकता बल्कि ये खुद की पसंद है। इस तरह देखा जाए तो धारा 497 महिला की सेक्सुअल चॉइस यानी मौलिक चॉइस को छीनता है क्योंकि शादी के बाद पति की सहमति पर सबकुछ निर्भर करता है।
धारा-497 का उद्देश्य है कि पति के कंट्रोल में पत्नी को लाया जाए। पत्नी चूंकि प्रॉपर्टी की तरह है, ऐसे में पति का महिला की सेक्सुअलिटी पर शादी के बाद पूरा कंट्रोल हो जाता है। शादी में आते ही महिला सेक्सुअल चॉइस से दूर हो जाती है।
शादी होते ही महिला अडवांस में यह सहमति दे देती है कि वह पति से ही संबंध बनाएगी। ये उसकी गरिमा के खिलाफ है। हर व्यक्ति की गरिमा के मूल में सेक्सुअल स्वायत्तता है। यह हर व्यक्ति का संवैधानिक अधिकार है। महिला की सेक्सुअलिटी पर पति के हित को प्रोटेक्ट करता है अडल्टरी कानून।
इस तरह धारा-497 को अपराध के दायरे में रखना महिला की गरिमा के लिए खतरा है। सेक्सुअल स्वायत्तता की सरकार और शादी जैसी संस्था उपेक्षा नहीं कर सकती। पति को सेक्सुअल स्वायत्तता का मालिक बनाना मनमाना है क्योंकि सेक्सुअल और निजता का अधिकार नेचरल राइट है और ये संविधान में मिला अधिकार है। कानून संवैधानिक नैतिकता के अनुसार होना चाहिए जबकि अडल्टरी कानून शादी के बाद एक की सेक्सुअल अटॉनमी दूसरे के हवाले कर देता है।
गुजरे जमाने का कानून
जस्टिस रोहिंटन नरीमन ने कहा कि आईपीसी कानून अस्तित्व में आया तब हिंदुओं में तलाक नहीं था। 1955 में हिंदू बहुविवाह करते थे और वह अपराध नहीं था। किसी सिंगल महिला से संबंध अपराध नहीं था क्योंकि पुरुष जब कई शादी कर सकते थे तो फिर ऐसे संबंध का मतलब नहीं था। ऐसे में इसे अपराध भी नहीं बनाया गया।
वहीं पति अपनी पत्नी से संबंध बनाने वाले पर केस कर सकता था। इसी तरह अगर सहमति हो तो अपराध नहीं माना गया जो कि पितृ सत्तात्मक मंशा दिखाता है। कानून में महिला को गुलाम और संपत्ति की तरह बताया गया है। ऐसे में यह पुराना कानून मौजूदा संवैधानिक नैतिकता के दायरे से बाहर है। यह मौजूदा समय में औचित्य खो चुका है।
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शादी की पवित्रता भी नहीं बचाता
अडल्टरी कानून पर हुई पूरी सुनवाई में सरकार का यह पक्ष रहा कि धारा-497 को बरकरार रखा जाए क्योंकि यह शादी जैसी संस्था की पवित्रता को बचाता है। वहीं जस्टिस नरीमन ने अपने फैसले में लिखा है कि शादी की पवित्रता तब भी प्रभावित होती है, जब शादीशुदा एक तलाकशुदा और विधवा से संबंध बनाता है।
पति की सहमति से पत्नी किसी और से संबंध बनाए तो वह भी अपराध नहीं और इस तमाम परिस्थितियों में शादी की पवित्रता खत्म होती है। ऐसे में शादी की पवित्रता को इस नाम पर संरक्षित करने की जरूरत नहीं है।
यह कानून इस कदर मनमाना है कि अगर महिला का पति से सबंध ठीक नहीं हो और वह अलग रह रही हो और इस दौरान उसका किसी और आदमी से संबंध बन जाए तो उसका पति उस तीसरे मर्द पर केस दर्ज करा सकता है।