नेत्र सर्जन डॉ. सुरेश पाण्डेय एवं डॉ. विदुषी पाण्डेय
सुवि नेत्र चिकित्सालय एवं लेसिक लेजर सेंटर, कोटा
दीपावली का अर्थ केवल घरों में दीप जलाना नहीं, बल्कि अपने भीतर भी उजाला फैलाना है। हर साल जब हम दीपक जलाते हैं, घर सजाते हैं और मिठाइयाँ बाँटते हैं, तो हमारे हृदय में आनंद और उल्लास का प्रकाश फैल जाता है। परंतु इस रोशनी के बीच कहीं न कहीं हमारी धरती, हमारा आकाश और हमारी हवा अंधकार में डूब जाते हैं।
क्या हमने कभी ठहरकर सोचा है कि हम वास्तव में क्या रोशन कर रहे हैं, खुशियाँ या प्रदूषण? आँकड़ों के अनुसार, भारत की पटाखा उद्योग लगभग 6,000 से 15,000 करोड़ रुपये की है, पर इसकी असली कीमत हमारा पर्यावरण चुका रहा है।
दीपावली की अगली सुबह कई शहरों में वायु गुणवत्ता सूचकांक 400 से ऊपर पहुँच जाता है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन की दृष्टि में “बेहद ख़तरनाक” श्रेणी है। हवा में पार्टिकुलेट मैटर का स्तर सामान्य से 10 गुना बढ़ जाता है। सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और भारी धातुएँ जैसे सीसा और बैरियम हमारी हवा, मिट्टी और पानी को ज़हरीला बना देते हैं।
यह केवल आँकड़े नहीं हैं, यह हमारी साँसों का भविष्य है। हर दीपावली के बाद अस्पतालों में सांस संबंधी बीमारियों, एलर्जी और आँखों में जलन के मामले कई गुना बढ़ जाते हैं। नन्हे बच्चे और बुज़ुर्ग सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। हमारे देश के कई हिस्सों में तो दीपावली की रात और अगली सुबह एक धुंध की चादर में ढक जाती है।
कई लोग कहते हैं, “प्रदूषण तो गाड़ियों, उद्योगों और पराली से भी होता है।” हाँ, यह सही है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी से मुँह मोड़ लें। परिवर्तन हमेशा किसी एक के निर्णय से शुरू होता है। अगर हर परिवार यह ठान ले कि इस दीपावली ग्रीन पटाखे का उपयोग करेगा तो यह एक छोटा-सा कदम करोड़ों जीवन के लिए बड़ी राहत की शुरुआत कर सकता है।
इस शोर और धुएँ का सबसे बड़ा खामियाजा वे भुगतते हैं जो बोल नहीं सकते, हमारे हज़ारों पशु और पक्षी। कुत्ते डर से काँपते हैं, बिल्लियाँ छिप जाती हैं, पक्षी दिशाभ्रमित होकर इमारतों से टकरा जाते हैं। उनके लिए यह उत्सव भय का प्रतीक बन जाता है। क्या हमें सच में ऐसी खुशी चाहिए जो दूसरों के दर्द पर टिकी हो?
डॉ. सुरेश पाण्डेय और डॉ. विदुषी पाण्डेय, सुवि नेत्र चिकित्सालय ए वं लेसिक लेज़र सेंटर, कोटा के अनुसार पटाखे केवल पर्यावरण को नहीं, हमारी आँखों की रोशनी को भी खतरे में डालते हैं। हर साल सैकड़ों लोग (विशेषकर बच्चे) पटाखों की वजह से अपनी आँखों की ज्योति खो बैठते हैं।
आँकड़ों के अनुसार, पटाखों से घायल होने वाले लगभग 70% बच्चे 10 से 14 वर्ष के होते हैं। कॉर्निया पर चोट, पलकें जलना, आँखों में खून उतरना, या यहाँ तक कि रेटिना फट जाना, ये सब आम घटनाएँ हैं। पटाखा कभी भी बच्चे के हाथ में खिलौना नहीं बन सकता। एक चिंगारी, एक लापरवाही, और जीवनभर का अंधकार।
डॉ. सुरेश पाण्डेय ने बताया कि थोड़ी-सी सावधानी हमारी आँखों की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकती है। दीपावली के समय माता-पिता अपने बच्चों को पटाखे लेकर अकेले बाहर न जाने दें। बोतल या मटके में रॉकेट न चलाएँ, क्योंकि इसके फटने पर काँच के टुकड़े और आग दोनों ही नुकसान पहुँचा सकते हैं। यदि कोई पटाखा न चले, तो उसे पास जाकर छूने या दोबारा जलाने का प्रयास न करें। भीड़भाड़ या सड़कों पर पटाखे न चलाएँ, न ही हाथ में पकड़े-पकड़े जलाएँ।
सुरक्षित दीपावली मनाने के लिए सूती कपड़े पहनें, ढीले या लटकते कपड़ों से बचें। आँखों की सुरक्षा के लिए सेफ्टी ग्लास का उपयोग करें। अधजले पटाखों को पानी में डालें और बच्चों पर हर समय नज़र रखें। यदि किसी को आँख में चोट लगे, तो तुरंत नेत्र चिकित्सक से संपर्क करें—घर के नुस्खों या देरी से स्थिति और बिगड़ सकती है।
याद रखें, पलभर की चूक जीवनभर का अंधकार बन सकती है। दीपावली का असली अर्थ केवल बाहरी रोशनी नहीं, बल्कि भीतर की जागरूकता है।
आइए, इस बार ऐसी दीपावली मनाएँ जो धरती को भी साँस लेने का अवसर दे। हम पटाखों की जगह दीयों से घर सजाएँ, मिठाइयों से दिल मीठा करें, और मुस्कान से रोशनी फैलाएँ। बच्चों को पर्यावरण संरक्षण का पाठ पढ़ाएँ और उन्हें बताएं कि “ग्रीन दीपावली” का मतलब केवल प्रदूषण रहित नहीं, बल्कि करुणा और जिम्मेदारी से भरी दीपावली है।
हमारी धरती केवल हमारी नहीं, हर जीव, हर प्राणी की है।इसलिए, धुआँ नहीं, रोशनी फैलाएँ। शोर नहीं, सुकून बाँटें। डर नहीं, प्रेम जगाएँ। आइए इस दीपावली “बदलाव का दिया” जलाएँ।

