अंतःकरण से आसक्त रहना ही यथार्थ वैराग्य है: आर्यिका सौम्यनन्दिनी

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कोटा। महावीर नगर विस्तार योजना स्थित दिगंबर जैन मंदिर में चल रहे आर्यिका सौम्यनन्दिनी माताजी संघ के पावन वर्षायोग के अवसर पर माताजी ने प्रवचन करते हुए कहा कि जैसे गाय के साथ बछड़ा स्वतः ही चला आता है। उसी प्रकार भक्ति करने से ज्ञान स्वतः आता है। केवल शरीर को कष्ट देने से वैराग्य नहीं होता। भगवान जिस हाल में हमें रखे उस स्थिति में हम प्रसन्न रहें, यही वैराग्य है। वह सुख से रखता है तो हम अनासक्त रहें, वैराग्य के लिए गृहस्थी नहीं छोड़नी है।

उन्होंने कहा कि साधु-संत हमारे से भी अच्छी गृहस्थी रखते हैं, लेकिन वह अनासक्त रहते हैं। अंतःकरण से जो आसक्ति रहित रहता है वही यथार्थ वैराग्य है। शरीर पर भस्म लपेट कर वैराग्य नहीं होता। वरन भगवान के भरोसे देह को छोडना वैराग्य है। किसी बात का मोह नहीं हो और फिर भी आनंद से रहे और जो हालात है उसे ईश्वर इच्छा माने, वह अपने आप ही भक्त हो जाता है।

उन्होंने कहा कि भक्त होने के लिए नामस्मरण रूपी राजमार्ग पर चलना जरुरी है। गुरु ने जो नाम स्मरण के लिए कहा है, उसी का नाम लेकर उसी में गुरू को देखा जाना चाहिए। जो दिखाई दे वही गुरु है। नाम स्मरण साधन भी है और साध्य भी है। नामस्मरण रोम-रोम में होना चाहिए, तब भगवान हमसे दूर हो ही नहीं सकते।

उन्होंने कहा कि गृहस्थी के प्रति आसक्ति को हटा कर परमार्थ में जुटना चाहिए। गुरु की अनन्य शरण में जाने का अर्थ अहंकार मिटाना, जड़ से नष्ट हुए बिना अनन्य शरण में नहीं जाया जा सकता। गुरू का बताया नामस्मरण निरंतर करना है।