कोटा। जैनाचार्य प्रज्ञासागर जी मुनिराज का 37वां चातुर्मास महावीर नगर प्रथम स्थित प्रज्ञालोक में गुरुवार को भी जारी रहा। आचार्य प्रज्ञासागर महाराज ने अपने प्रवचन में रयणसार गाथा-22 के माध्यम से वैयावृति (धर्मसेवा) के शास्त्रीय स्वरूप की गूढ़ व्याख्या की।
उन्होंने कहा कि गुरू के केवल पैर दबाने से वैयावृति नहीं होती। वैयावृति का वास्तविक अर्थ है साधु-संतों के धर्ममार्ग में सहायक बनना। उनके विहार, आरोग्य, आहार और धर्मकार्य में सहयोग देना।
गुरुदेव ने कहा कि यदि कोई व्यक्ति साधु-संतों पर आने वाले उपसर्गों (कष्टों) को दूर करने में सक्रिय है अथवा विहार में साथ चलकर उनकी सुरक्षा, सेवा या सुविधा सुनिश्चित करता है, तो वह वैयावृति का भागी है।
उन्होंने कहा कि जब नगर में गुरुओं का आगमन हो, तो प्रत्येक नगरवासी का कर्तव्य है कि वह इस शुभ समाचार को अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाए। यदि आपकी दी हुई जानकारी से कोई व्यक्ति धर्मसभा में आता है और धर्म का श्रवण करता है, तो उसका पुण्य आपको भी प्राप्त होता है।
अपने प्रवचन में आचार्य श्री ने फास्टैग और टोल टैक्स की उपमा देते हुए समझाया कि जैसे वाहन फास्टैग से निकलते ही स्वतः टोल राशि कट जाती है, वैसे ही धर्म की सूचना देना भी पुण्यार्जन का एक माध्यम बन जाता है। यदि आपकी प्रेरणा से कोई साधक प्रवचन का लाभ लेता है, तो उसका पुण्य भी स्वतः आप तक पहुंचता है।
उन्होंने चिंता व्यक्त की कि वर्तमान में गुरुओं के विहार के दौरान दुर्घटनाओं की खबरें भी मिलती रही हैं। ऐसे में समाज का दायित्व है कि अधिक से अधिक संख्या में साधु-संतों के विहार में साथ चलें, जिससे उनकी सुरक्षा बनी रहे और धर्मसेवा का पुण्य भी प्राप्त हो।
गुरुदेव ने एक कटु सत्य पर प्रकाश डालते हुए कहा कि प्राय: जिस साधु का यशगान होता है, उसके साथ भीड़ चलती है, किंतु जिस मुनि का अभी यश नहीं हुआ, उसके साथ मंदिर का माली भी नहीं जाता। जब मालिक (समाज) ही साथ नहीं देता, तो माली (व्यवस्था) कैसे देगा?

