कोटा। जैनाचार्य प्रज्ञा सागर मुनिराज का 37वां चातुर्मास महावीर नगर प्रथम स्थित प्रज्ञालोक में चल रहा है। मुनिराज ने रविवार को अपने प्रवचन में संतत्व की ओर अग्रसर होने के लिए श्रद्धालुओं को प्रेरित किया।
उन्होंने कहा कि यदि आप इस जन्म में मुनि बनने का भाव बनाएंगे, तो अगला जन्म आपके वैराग्य मार्ग पर अग्रसर होने की नींव रखेगा। उन्होंने समझाया कि जो व्यक्ति मन के वशीभूत होता है, मन उससे नादानी और शैतानी करवाता है, जबकि वैरागी व्यक्ति मन को अपने नियंत्रण में रखता है।
गुरुदेव ने राजा भरत और भगवान ऋषभदेव की एक मार्मिक कथा सुनाई। उन्होंने बताया कि राजा भरत के 923 पुत्र जन्म से मूक थे। जब उन्होंने भगवान ऋषभदेव से इसका कारण पूछा तो उत्तर मिला वे पुत्र मूक नहीं, बल्कि जीवनभर मौन व्रत धारण करने वाले संत हैं। उन्होंने आठ वर्ष की आयु में दीक्षा लेकर मोक्ष की ओर यात्रा आरंभ कर दी है। इस प्रसंग के माध्यम से गुरुदेव ने उपस्थित श्रद्धालुओं से आह्वान किया कि वे प्रत्येक दिन मुनि बनने का संकल्प लें, तभी अगली जन्मों में उसका फल प्राप्त हो सकेगा।
छोटों के प्रति बड़ा मन रखें
गुरुदेव ने सामाजिक व्यवहार पर प्रकाश डालते हुए कहा कि लोग वातानुकूलित होटलों में कार्यरत वेटर को 100-200 रुपये टिप में दे आते हैं, लेकिन सड़क पर मेहनत करने वाले रिक्शावालों या सब्जी विक्रेताओं से 5-10 रुपये के लिए मोलभाव करते हैं। उन्होंने इस मानसिकता को बदलने की अपील की।
पाप का प्रायश्चित है दान
प्रज्ञासागर महाराज ने दान की महत्ता पर बल देते हुए कहा कि कमाई के चक्कर में कई बार मनुष्य अनजाने में पाप भी कर बैठता है। ऐसे पापों का प्रायश्चित ‘दान’ है। उन्होंने समझाया कि दान से पाप का ब्याज चुकता होता है, जबकि त्याग से मूल समाप्त होता है।
गुरुदेव ने लोगों को दान, शील, पूजा और उपवास जैसे सत्कर्मों की ओर प्रेरित किया और बताया कि ये साधन मन को शांत और इंद्रियों को संयमित करते हैं। उन्होंने कहा जिसके पास धन है, वह धर्म प्रभावना में आर्थिक सहयोग दे। जिसके पास समय/मन है, वह मन लगाकर पूजा-पाठ करे। और यदि यह भी संभव न हो, तो शील-व्रत एवं ब्रह्मचर्य का पालन करें। यदि कुछ भी न कर पाएं, तो उपवास करें। उपवास आत्मशुद्धि और उपासना का सशक्त माध्यम है।

