कोटा। घृणा अध्यात्म की शत्रु है। घृणा एक ऐसी भावना है जो मनुष्य के मन को संकुचित करती है, उसे दूसरों से अलग करती है और नकारात्मक ऊर्जा से भर देती है। यह व्यक्ति की आंतरिक शांति और संतुलन को बाधित करती है, जो आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक हैं। इसके विपरीत, अध्यात्म व्यक्ति को अपने अंदर और बाहर की दुनिया से जोड़ता है ; उसके दृष्टिकोण को विस्तृत करता है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है।
यह बात श्रमण श्रुतसंवेगी आदित्य सागर मुनिराज ने दिगंबर जैन मंदिर त्रिकाल चौबीसी आरकेपुरम में आयोजित नीति प्रवचन में कही। आरकेपुरम के अध्यक्ष अंकित जैन व मंत्री अनुज जैन ने बताया कि गुरुदेव ने अपने प्रवचन में कहा कि जब पुण्य का बीज होता है तभी कार्य अपने अनुकूल व अनुसार होता है और घृणा की भावना आपके अंदर के पुण्य भाव को समाप्त कर देती है।
आध्यात्म का सबसे बड़ा शत्रु घृणा है। ग्रंथों में लिखा है आपके घृणा करने वाले जीव अगले जन्म में ऐसी योनि में जन्म लेते हैं, जिनसे सब घृणा करते हैं। उन्होंने कहा कि सबको मृत्यु आनी है। परंतु मृत्यु को मरण व समाधि जिसे बनाना है तो उसे घृणा को भूलना होगा।
उन्होंने कहा मनुष्य में कई कमियाँ व अवगुण हैं। हम स्वयं को नहीं देखते हैं न स्वयं से घृणा करते हैं। उन्होंने कहा कि आप किसी की निंदा भी न करें। क्योंकि ईर्ष्या का भाव ही घृणा का आधार है। आप ईर्ष्या प्रारंभ करते हैं वैसे ही घृणा आपके अंदर प्रवेश करने लगती है।
नीति कहती है कि घृणा आपके अंदर प्रेम की इम्युनिटी को कम कर देती है। ईर्ष्या का बीज आपको घृणा का फल देता है और प्रेम का बीज आपको मोक्ष मार्ग पर ले जाता है और मृत्यु को मरण व समाधि बनाता है।
इस अवसर पर सकल समाज से अध्यक्ष विमल जैन नांता, कार्याध्यक्ष जे के जैन,मंत्री विनोद जैन टोरडी, चातुर्मास समिति से टीकम पाटनी, पारस बज, राजेंद्र गोधा, आरकेपुरम मंदिर समिति से अंकित जैन, पदम जैन, पीयूष बज, लोकेश बरमुंडा,चंद्रेश जैन ,प्रकाश जैन, रोहित जैन, सुरेंद्र जैन, संजय जैन, जितेंद्र जैन, राकेश सामरिया, पारस लुहाड़िया, संयम लुहाड़िया, तारा चंद बड़ला, पंकज खटोड़, तारा चंद बड़ला, सुरेन्द्र चांदवाड़ सहित कई लोग उपस्थित रहे।