कोटा। रिद्धि–सिद्धि नगर स्थित दिगम्बर जैन मंदिर में गुरुवार को गणिनी आर्यिका विभाश्री माताजी ने अपने प्रवचन में कहा कि संसार की माया और विषय-वासनाएं आत्मा को पाप कर्मों के नए बंधन में बांध देती हैं। आत्मा को शुद्ध करने के लिए राग-द्वेष का त्याग और संयम का जीवन अपनाना आवश्यक है।
माताजी ने कहा कि जैसे सूर्य की किरणें काँच या धूल के कारण मलीन हो जाती हैं, वैसे ही मोह और आसक्ति आत्मा की ज्योति को धूमिल कर देती है। जब तक आत्मा विषयों की ओर आकृष्ट रहती है, तब तक वह मुक्त नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि संसार की भौतिक इच्छाओं की पूर्ति में रत व्यक्ति परमात्मा के मार्ग से भटक जाता है।
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि जिस प्रकार पारस मणि लोहे को स्वर्ण बना देती है, उसी प्रकार यदि साधक अपने भीतर क्रोध, लोभ और अहंकार को त्याग दे तो वह परमात्मा स्वरूप बन सकता है। परंतु यदि मनुष्य अपने भीतर की दुर्भावनाओं को नहीं मिटाता, तो उसके बाह्य वैभव का कोई लाभ नहीं।
माताजी ने कहा कि धन, पद और प्रतिष्ठा केवल साधन हैं, साध्य नहीं। यदि कोई धनी व्यक्ति अपने धन का उपयोग धर्म, सेवा और आत्मकल्याण में नहीं करता, तो उसका वैभव निरर्थक है। सच्चा सुख और शांति तभी संभव है जब मनुष्य आत्म-साक्षात्कार के पथ पर अग्रसर हो।

