नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट मुसलमानों, विशेषकर दाऊदी बोहरा समुदाय में प्रचलित महिलाओं का खतना (FGM) करने की प्रथा पर प्रतिबंध लगाने संबंधी याचिका पर विचार करने के लिए शुक्रवार को सहमत हो गया है।
जस्टिस बी. वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने एक गैर-सरकारी संगठन द्वारा दायर याचिका पर केंद्र और अन्य संबंधित पक्षों को नोटिस जारी कर दिए हैं।
अदालत ‘चेतना वेलफेयर सोसाइटी’ की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें दावा किया गया है कि यह प्रथा इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है और बच्चों के अधिकारों का उल्लंघन करती है।
याचिका में कहा गया है, ‘ POCSO (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण) ऐक्ट के तहत किसी नाबालिग के जननांगों को गैर-चिकित्सकीय कारणों से छूना कानून का उल्लंघन है।
याचिका में यह भी उल्लेख किया गया है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने महिला खतना को लड़कियों और महिलाओं के मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन करार दिया है।’
पूर्व सीजेआई बीआर गवाई ने भी इस्लाम में खतने की प्रथा को लेकर चिंता जताई थी। उन्होंने कहा था कि संविधान में अधिकार मिलने के बाद बी देश में बेटियों का एफजीएम यानी खतना हो रहा है। सीजेआई ने कहा था कि कोर्ट में एफजीएम के साथ ही सबरीमाला, पारसी समुदाय में अदियारी और अन्य धार्मिक स्थलों पर महिलाओं के प्रति कथित भेदभाव को लेकर सुनवाई कर रहा है।
क्या होता है खतना
रूढ़िवादी मुसलमान मानते हैं कि जब तक महिलाओं का खतना नहीं किया जाता तब तक वे शुद्ध नहीं होती और शादी के लिए तैयार नहीं होती हैं। कानून कहता है कि खतना करने के दोषी पाए जाने वाले लोगों को सात साल तक की कैद हो सकती है। दरअसल खतना की प्रक्रिया में जननांग का एक हिस्सा काट दिया जाता है। कई डॉक्टर प्लास्टिक सर्जरी के बहाने खतना करते हैं। हालांकि अब लड़कियों का खतना करवाने वाले लोगों की संख्या में कमी आई है।

