कोटा। तपोभूमि प्रणेता, राष्ट्रसंत आचार्य प्रज्ञासागर मुनिराज ने वर्षायोग 2025 के अंतर्गत अपने प्रवचन में आत्मनिरीक्षण और चारित्रिक शुद्धता का गहन संदेश देते हुए कहा कि हमारी छवि (इमेज) हमारी अपनी ही बनायी हुई होती है, और उसे बिगाड़ने या संवारने का अधिकार भी केवल हमारे ही हाथों में है।
आचार्य ने जीवन में दोहरे चरित्र की प्रवृत्तियों की आलोचना करते हुए कहा कि कुछ लोग सामने कुछ और, भीतर कुछ और सोचते हैं। ऐसे लोग भीतर से ईर्ष्या, कपट, लोभ और कंजूसी जैसे दुर्गुणों से ग्रसित रहते हैं। यदि हम इन बुराइयों पर विजय प्राप्त कर लें, तो न केवल हमारी आत्मा शुद्ध होगी, बल्कि समाज में हमारी प्रतिष्ठा भी पुनः स्थापित हो सकेगी।
उन्होंने जैन धर्म का उदाहरण देते हुए रात्रि भोजन के निषेध की विशेषता पर बल दिया। उन्होंने कहा कि दूसरे समुदाय के लोग जैन धर्म की इस शुद्ध परंपरा को जानते हैं और इसी के आधार पर उनके मन में जैन समाज की एक सकारात्मक छवि बनी हुई है। यही प्रमाण है कि छवि कर्मों से बनती है, वाणी से नहीं।
आचार्य श्री ने उदाहरण देते हुए कहा, जिस प्रकार चावल में से कंकर को निकालकर जब खीर बनती है तो स्वाद आनंददायक होता है, लेकिन एक भी कंकर यदि रह जाए तो संपूर्ण खीर का स्वाद बिगड़ जाता है। इसी प्रकार, हमारे भीतर यदि एक भी अवगुण रह गया तो वह सारे गुणों को ढक लेता है।
आचार्य प्रज्ञासागर ने प्रज्ञालोक की उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मन की गांठें यदि समय रहते नहीं खोली जाए, तो वे मानसिक विकार का रूप ले लेती हैं। जैसे शरीर में कोई गांठ आए तो हम चिकित्सक के पास जाते हैं, वैसे ही मन के दोषों के उपचार के लिए हमें ‘प्रज्ञालोक’ की शरण में आना चाहिए। यहां नियमित साधना व प्रवचनों से मन का कचरा साफ किया जाता है।

