भौतिकता की दौड़ में खो रही है परिवारिक मर्यादा: विभाश्री माताजी

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कोटा। विभाश्री माताजी एवं आर्यिका विनयश्री माताजी (संघ सहित) का मंगल प्रवेश शनिवार को पदम प्रभु दिगंबर जैन मंदिर बालिता रोड से ऋद्धि सिद्धि नगर में हुआ। प्रवचन में विभाश्री माताजी ने मानव जीवन के आध्यात्मिक महत्व, दृष्टिकोण और बदलती सामाजिक परिस्थितियों पर गहन प्रकाश डाला।

माताजी ने कहा कि इंद्रियाँ और देवता भी मनुष्य जन्म की प्राप्ति को तरसते हैं, जबकि मनुष्य स्वयं देवत्व प्राप्त करने की इच्छा रखता है। यह अंतर केवल आध्यात्मिक और सांसारिक दृष्टि का अंतर है। उन्होंने बताया कि जिस मानव जीवन में आत्मा, भक्ति और अपरिग्रह का आनंद हो, जहां कष्ट में भी आनंद की अनुभूति संभव हो, वही दृष्टि मनुष्य को सुर-काया के समान दुर्लभ और वंदनीय बना देती है।

माताजी ने स्पष्ट कहा कि संत–समागम, भगवान की भक्ति और जिनवाणी के श्रवण में आनंद आने लगे, यही वह दृष्टि है जो मनुष्य को सही दिशा प्रदान करती है। उन्होंने कहा कि एक बार विचार-दृष्टि जाग जाए, उसके बाद व्यक्ति को मंदिर और संतों तक लाना कठिन नहीं रहता।

विभाश्री माताजी ने आज के समाज की जीवनशैली को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि आधुनिक मनुष्य उधार की जिंदगी जीने का आदी हो चुका है। उन्होंने कहा कि पहले कम आय में भी परिवार संतोष और मर्यादा के साथ जीवन व्यतीत करता था, परंतु आज बच्चों के खर्च अत्यधिक बढ़ गए हैं।

उन्होंने कहा युवक माता-पिता की कमाई पर विदेश घूम रहे हैं, महंगे फोन और विलासिताओं पर खर्च कर रहे हैं। बुजुर्गों का सम्मान कम हो गया है। जब घर में बड़े-बुजुर्गों का आदर ही समाप्त हो जाए तो समाज के प्रति परोपकार की भावना कैसे जागेगी?

माताजी ने कहा कि एक समय था जब 40–50 लोग एक ही घर में रहते थे और विपत्ति के समय पूरा परिवार एकजुट होकर खड़ा होता था। आज परिवारों में विघटन बढ़ रहा है और युवा पीढ़ी जीवन के मूल्यों से दूर होती जा रही है।

अंत में माताजी ने कहा कि जब व्यक्ति स्वयं परिवार, बुजुर्ग और समाज के प्रति उत्तरदायित्व नहीं समझता, तो उससे परोपकार और समाजसेवा की आशा करना कठिन है। उन्होंने समाज से आग्रह किया कि आध्यात्मिक दृष्टि, सद्विचार, परोपकार और परिवारिक एकजुटता को पुनः जीवन में स्थापित करें, तभी समाज का उत्थान संभव है।