कोटा। प्रज्ञासागर जी मुनिराज ने महावीर नगर प्रथम स्थित प्रज्ञालोक में चल रहे चातुर्मास के दौरान रविवार को अपने प्रवचनों में गृहस्थ और मुनि जीवन की तुलना करते हुए कहा कि दोनों की दिनचर्या, कर्तव्य और आचरण अलग-अलग होते हैं, परंतु प्रत्येक को अपने धर्म का पालन करते हुए आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होना चाहिए।
उन्होंने कहा कि गृहस्थ को पहले उत्तम श्रावक, फिर क्षुल्लक और आगे मुनि बनने की दिशा में बढ़ते हुए अंततः अरिहंत बनने की ओर बढ़ना चाहिए। यह क्रम उसी प्रकार है जैसे कोई व्यक्ति किसी ऊंची मंज़िल तक पहुंचने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ता है।
उन्होंने कहा कि आपने ईश्वर से मनुष्य योनि की याचना स्वयं की थी, अरिहंत बनने हेतु, लेकिन दुर्भाग्यवश आज आप उस लक्ष्य को भूलकर केवल पद, प्रतिष्ठा और धन के पीछे दौड़ने लगे हैं।
प्रवचन में उन्होंने जोर देकर कहा कि मानव जीवन आत्मा को परमात्मा में रूपांतरित करने का एक दुर्लभ अवसर है। विशेषकर गृहस्थ जीवन में रहते हुए यदि कोई अपने कर्तव्यों के साथ धर्म को केंद्र में रखे, तो मोक्ष की दिशा में बढ़ना संभव है।
प्रज्ञासागर जी महाराज ने दान को श्रावकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि “रयणसार ग्रंथ के अनुसार श्रावकों के दो कार्य — दान और पूजा — प्रमुख होते हैं, वहीं मुनियों का कार्य ध्यान और अध्ययन है।”
उन्होंने समझाया कि आपके पास जो भी धन, वैभव, पद या प्रतिष्ठा है, वह केवल आपकी मेहनत का नहीं, अपितु आपके पूर्वजन्मों के पुण्य का परिणाम है। स्वामी कुंदकुंद ने भी कहा है कि पुण्य से ही वैभव और प्रसिद्धि मिलती है।
उदाहरण स्वरूप उन्होंने कहा, जिस प्रकार किसान बीज बोकर पौधा, फूल और फल प्राप्त करता है, उसी तरह दान से पुण्य उत्पन्न होता है और पुण्य से पुनः धन की प्राप्ति होती है। यदि वह पुनः दान न करे तो पुण्य क्षीण हो जाता है और अगली फसल नहीं उगती।
उन्होंने यह भी कहा कि भोजन केवल शरीर के लिए नहीं, आत्मा के लिए भी होना चाहिए। भोजन शरीर की ऊर्जा है, परंतु भजन आत्मा की खुराक है। प्रतिदिन भोजन करते हैं, परंतु यदि वह भजन के बिना हो तो आत्मा दुर्बल होती जाती है। अतः जितनी ऊर्जा भोजन से मिलती है, उसका उपयोग भजन में करें। भजन से आत्मा का ‘भार’ अर्थात शक्ति बढ़ती है।”

