भारत के कई प्रदेश जलवायु संबंधी घटनाओं से जोखिम की चपेट में : CEEW

0
323

कोटा/जयपुर। भारत में बाढ़, सूखा और चक्रवात जैसी जलवायु संबंधी चरम घटनाओं के लिए कई जोखिम वाले राज्य हैं। यह जानकारी अपनी तरह के पहले क्लाइमेट वल्नेरेबिलिटी इंडेक्स (जलवायु सुभेद्यता सूचकांक) से सामने आई है, जिसे आज काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) ने जारी किया है।

कुल मिलाकर भारत के 27 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश जलवायु संबंधी चरम घटनाओं के जोखिम की चपेट में हैं। जो अक्सर स्थानीय अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाते हैं और कमजोर समुदायों को विस्थापित करते हैं और 80 प्रतिशत से अधिक भारतीय जलवायु संबंधी चरम घटनाओं के जोखिम वाले जिलों में रहते हैं।

जलवायु परिवर्तन पर आगामी चर्चा ग्लासगो, ब्रिटेन में होने जा रही है। इसे कॉप-26 कहा जा रहा है। इसमें भारत जैसे विकासशील देशों की ओर से विकसित देशों से समय पर क्लाइमेट फाइनांस (जलवायु वित्त) जुटाने और वितरित करने की मांग रखे जाने की उम्मीद है।

इससे विकासशील देशों को जलवायु संबंधी घटनाओं से निपटने के लिए अपनी अनुकूलन प्रणाली को मजबूत बनाने और कार्बन का कम उत्सर्जन करने वाले उपायों को अपनाने की गति बढ़ाने में मदद मिलेगी। विकसित देशों के वादे अभी तकअपर्याप्त हैं और पूरे किए जाने बाकी हैं।

इंडिया क्लाइमेट कोलेबोरेटिव एंड एडलगिव फाउंडेशन के अध्ययन में कहा गया है कि भारत के 640 जिलों में से 463 जिले अत्यधिक बाढ़, सूखे और चक्रवात के जोखिम के दायरे में हैं। इनमें से 45 प्रतिशत से अधिक जिले अस्थिर परिदृश्य और बुनियादी ढांचे में बदलावों का सामना कर चुके हैं।

इसके अलावा, 183 हॉटस्पॉट जिले जलवायु संबंधी एक से अधिक चरम घटनाओं के लिए अत्यधिक जोखिम की चपेट में हैं। सीईईडब्ल्यू के अध्ययन में यह भी पाया गया है कि 60 प्रतिशत से अधिक भारतीय जिलों में मध्यम से निम्न स्तर तक की अनुकूलन क्षमता मौजूद है।

असम में धेमाजी और नागांव, तेलंगाना में खम्मम, ओडिशा में गजपति, आंध्र प्रदेश में विजयनगरम, महाराष्ट्र में सांगली और तमिलनाडु में चेन्नई, भारत के सबसे ज्यादा जोखिम वाले जिलों में शामिल हैं।

सीईईडब्ल्यू के सीईईओ डॉ. अरुणाभा घोष ने कहा, “लगातार और बड़े पैमाने पर होने वाली जलवायु संबंधी चरम घटनाओं के खिलाफ संघर्ष भारत जैसे विकासशील देशों को आर्थिक रूप से कमजोर बनाने वाला है। होने वाले कॉप-26 में विकसित देशों को 2009 से अटके 100 बिलियन अमरीकी डॉलर की मदद के भरोसे को दोबारा जीतना चाहिए और आने वाले दशकों में क्लाइमेट फाइनांस को बढ़ाने का वादा भी करना चाहिए।

इसके अलावा भारत को एक ग्लोबल रिजिलियंस रिजर्व फंड बनाने के लिए अन्य देशों के साथ साझेदारी करनी चाहिए, जो जलवायु संबंधी खतरों के खिलाफ बीमा का काम कर सकता है। यह फंड जलवायु परिवर्तन के लिहाज से सबसे ज्यादा जोखिम वाले देशों, खास तौर पर ग्लोबल साउथ के ऊपर से आर्थिक दबाव को घटाएगा। अंत में, भारत को एक क्लाइमेट रिस्क एटलस बनाने से नीति-निर्माताओं को जलवायु संबंधी चरम घटनाओं के जोखिमों को बेहतर ढंग से पहचानने और उनका मूल्यांकन करने में मदद मिलेगी।”

अबिनाश मोहंती, प्रोग्राम लीड, सीईईडब्ल्यू, और इस अध्ययन के मुख्य लेखक ने कहा, “भारत में 2005 के बाद से जलवायु संबंधी चरम घटनाओं की दर और तीव्रता लगभग 200 प्रतिशत बढ़ गई है। हमारे नीति-निर्माताओं, उद्योगों के नेतृत्वकर्ताओं और नागरिकों को जोखिम को ध्यान में रखकर प्रभावी निर्णय लेने के लिए जिलास्तरीय विश्लेषण का उपयोग करना चाहिए।

भौतिक और पारिस्थितिक तंत्र के बुनियादी ढांचे को जलवायु परिवर्तन के जोखिम से सुरक्षित बनाना, अब एक राष्ट्रीय आवश्यकता बन जाना चाहिए। इसके अलावा, भारत को पर्यावरणीय जोखिम को घटाने के अभियान में तालमेल लाने के लिए एक नया क्लाइमेट रिस्क कमीशन गठित करना चाहिए। जिस तरह से जलवायु संकट के कारण घाटा और क्षति बढ़ रही है।

सीईईडब्ल्यू का अध्ययन बताता है कि भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए बाढ़ों का, जबकि मध्य और दक्षिण भारत के राज्यों के लिए भीषण सूखे का जोखिम सबसे ज्यादा है। इसके अलावा पूर्वी और दक्षिणी राज्यों में कुल जिलों में क्रमश: 59 और 41 प्रतिशत जिले भीषण चक्रवातों के जोखिम की चपेट में हैं।

सीईईडब्ल्यू के अध्ययन के अनुसार केवल 63 प्रतिशत जिलों के पास ही जिला आपदा प्रबंधन योजना (डीडीएमपी) उपलब्ध है। चूंकि, इन योजनाओं को प्रति वर्ष अद्यतन बनाने की जरूरत होती है, इस लिहाज से 2019 तक इनमें से सिर्फ 32 प्रतिशत जिलों ने ही अपनी योजनाएं अपडेट की थी। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, ओडिशा, कर्नाटक, और गुजरात जैसे ज्यादा जोखिम वाले राज्यों ने हाल के वर्षों में अपने डीडीएमपी और जलवायु परिवर्तन-रोधी मुख्य बुनियादी ढांचों में सुधार किया है।