कोटा। प्रज्ञासागर मुनिराज का 37वां चातुर्मास महावीर नगर प्रथम स्थित प्रज्ञालोक में श्रद्धा, भक्ति और आध्यात्मिक गरिमा के साथ जारी है। गुरुवार को प्रवचन के दौरान प्रज्ञासागर महाराज ने कहा कि समय स्वयं वक्ता है।
वर्षों से माला फेरते आ रहे हैं, णमोकार मंत्र का जाप करते हैं, फिर भी मन स्थिर नहीं होता। जैसे पाण्डव शकुनि के जाल में फंसकर पासों के खेल में सब कुछ हार गए, वैसे ही हम भी मन के जाल में उलझ जाते हैं।
उन्होंने समझाया कि मन दो प्रकार का होता है, भगवान मन और शैतान मन। पहली पुकार भगवान मन की होती है, जो आत्मा का स्वरूप है। किंतु शैतान मन उस पर हावी होकर सही कार्य नहीं करने देता। साधक को चाहिए कि मन को कठोर बनाकर आत्मा पर उसका प्रभाव रोकें। जैसे बच्चों को अति लाड़-प्यार से बिगाड़ने पर वे जिद्दी हो जाते हैं, वैसे ही मन को भी अनुशासन की आवश्यकता है। अति सर्वत्र वर्जयेत्।
आचार्य ने उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे ज्यादा मिठाई खाने से बच्चों के दांत खराब हो जाते हैं, वैसे ही जरूरत से अधिक मोह और आसक्ति आत्मा के संस्कारों को नष्ट कर देते हैं। उन्होंने कहा कि इंद्रियां विषयों से बलवान होती हैं, लेकिन यदि साधक उपवास और संयम का अभ्यास करे तो वे नियंत्रण में आ जाती हैं।
आचार्य ने मन को शहर रूपी घोड़े की संज्ञा देते हुए कहा कि यदि इसे दाना-पानी सीमित कर दिया जाए तो यह साधक के वश में रह सकता है। मन को साधने वाला ही आत्मा को साध सकता है और वही मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ सकता है।

