बलूच पत्रकार ने पाकिस्तान के शहबाज-मुनीर के धागे खोल दिए, जानिए क्या हुआ

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नई दिल्ली। बलूच पत्रकार और कार्यकर्ता बिलाल बलूच ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UMHRC) के 60वें सत्र के इतर बलूचिस्तान के हालात की भयावह तस्वीर पेश की है। उन्होंने दावा किया कि वास्तविक हालात सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक विकट हैं।

बिलाल ने आरोप लगाया कि पाकिस्तानी कानून प्रवर्तन एजेंसियां इस क्षेत्र में लगभग अनुपस्थित हैं, जबकि बलूच स्वतंत्रता सेनानी खुफिया सूचनाओं के दम पर पूर्ण नियंत्रण बनाए हुए हैं और सरकारी अधिकारियों व सैन्यकर्मियों को निशाना बनाते रहते हैं।

उन्होंने पाकिस्तानी सत्ता के खिलाफ गहरते आक्रोश का जिक्र किया, जो विशेष रूप से बच्चों में व्याप्त है। 2006 में नवाब अकबर बुगती की हत्या के बाद यह विद्वेष और तेज हो गया। बिलाल का कहना है कि यदि आज जनमत संग्रह कराया जाए तो 99 प्रतिशत लोग पाकिस्तान को नकार देंगे।

उन्होंने आगे बताया कि सेना पर हमले अब रोजमर्रा की घटना बन चुके हैं, यहां तक कि विद्रोही वरिष्ठ अधिकारियों की गतिविधियों पर भी पैनी नजर रखते हैं। सरकारी दमन की कठोरता पर रोशनी डालते हुए बिलाल ने कहा कि अधिकारी अक्सर इंटरनेट और मोबाइल नेटवर्क को काट देते हैं, जिससे समाचारों को दबाया जाता है।

पारंपरिक मीडिया चुप्पी साधे रहता है, इसलिए सोशल मीडिया ही एकमात्र माध्यम बचता है, जब तक कि उस पर भी सख्ती न हो जाए। सूचना प्रवाह रोकने के लिए कार्यकर्ताओं का अपहरण कर लिया जाता है। उन्होंने सेना और सेना प्रमुख असीम मुनीर के समर्थन वाली शहबाज शरीफ की मौजूदा सरकार, दोनों पर जबरन गायब किए गए लोगों में मिलीभगत का आरोप लगाया।

न्यूज एजेंसी से बातचीत में बिलाल ने लापता लोगों के परिवारों, खासकर महिलाओं के इस्लामाबाद में 100 दिनों से अधिक चले आ रहे विरोध प्रदर्शनों का जिक्र किया, जो अपनों की जानकारी की मांग कर रहे हैं। उन्होंने प्रदर्शनकारियों के साथ दुर्व्यवहार का जिक्र करते हुए कार्यकर्ता महरंग बलूच का उदाहरण दिया, जिन पर अधिकारियों ने कथित रूप से हमला किया और अपमानित किया।

बिलाल ने पाकिस्तान में पंजाबी वर्चस्व की तीखी आलोचना की और पंजाब-केंद्रित संस्थानों पर बलूच, सिंधी तथा पश्तून आवाजों को हाशिए पर धकेलने का इल्जाम लगाया। उन्होंने 1971 से पूर्व बंगालियों के साथ हुए अत्याचारों से तुलना की और कहा कि वही नीतियां अब बलूचिस्तान पर थोपी जा रही हैं।

पाकिस्तान की धार्मिकता और विदेशी गठबंधनों पर अत्यधिक निर्भरता की उन्होंने निंदा की। उन्होंने तर्क दिया कि खुद को मुस्लिम जगत का नेता बताने वाले पाकिस्तान को संकट के समय अधिकांश इस्लामी देश अकेला छोड़ देते हैं।