कोटा। आचार्य प्रज्ञासागर मुनिराज ने प्रज्ञा लोक में अचल चातुर्मास के अवसर पर शनिवार को अपने प्रवचन में कहा कि हर शास्त्र अपने आप में विशेष है, परंतु कोई भी पूर्ण नहीं है। इसलिए जैन धर्म के समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर उनके सार तत्व को आत्मसात करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि गुरु चरणों में श्रद्धा रखते हुए शास्त्रों का रसपान ही सच्चा आत्मकल्याण है। मुनिश्री ने स्पष्ट किया कि जब व्यक्ति में देव, शास्त्र और गुरु के प्रति आस्था जागती है, तो संसारिक कर्मों के प्रति स्वाभाविक रूप से उदासीनता आ जाती है। साधु-संतों की संगति हमेशा जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाती है।
उन्होंने कहा कि हो सकता है कि हर व्यक्ति संत न बन पाए, लेकिन संतोषी अवश्य बन सकता है और यही सच्चा सुख है। प्रवचन के दौरान उन्होंने वर्तमान जीवनशैली पर कटाक्ष करते हुए कहा कि लोग जन्म, मरण और परंपरागत कार्यों के लिए समय निकाल लेते हैं, किंतु धर्म के लिए उनके पास समय नहीं होता। उन्होंने बताया कि व्यापार से केवल धन की प्राप्ति होती है, जबकि धर्म से पुण्य अर्जित होता है और पुण्य से धन, सुख, शांति, आत्मीयता एवं समृद्धि स्वतः प्राप्त होते हैं। यह पुण्य ही जीवन का वास्तविक धन है।
उन्होंने उपस्थित श्रद्धालुओं से आह्वान किया कि धन कमाएं, पर उससे अधिक पुण्य कमाने का प्रयास करें। मंदिर जाएं, प्रज्ञा लोक में प्रविष्ट हों और धर्म के प्रति समर्पण दिखाएं। उन्होंने कहा कि पैसा कमाना पुरुषार्थ है, परंतु पाप से अर्जित धन कभी शुद्ध नहीं होता। नीति, नियम, निष्ठा और ईमानदारी से किया गया कार्य ही पुण्य का कारण बनता है। इसलिए पुरुषार्थ अवश्य करें, लेकिन पाप से सदा बचें।

