परंपरागत कॉलेज का स्थान कोचिंग संस्थानों ने ले लिया, आखिर कौन है इसका जिम्मेदार?

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डॉ. कैलाश सोडाणी, कुलगुरु

वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा

आज से 15-20 वर्ष पूर्व तक विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में जो विद्यार्थियों का हुजूम दिखाई देता था, वह आज नदारद है। विद्यार्थियों की अनुपस्थिति से विश्वविद्यालयों की रौनक एवं चहल-पहल ही समाप्त हो गयी है, साथ ही शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक माहौल भी मृतप्रायः हो गया है, जो विश्वविद्यालयों की पहचान होती थी, वह पहचान ही समाप्त होती जा रही है ।

विद्यार्थियों की संख्या में प्रतिवर्ष इजाफा होने के बावजूद क्लास रूम हो, चाहे पुस्तकालय हो, चाहे प्रयोगशाला चारों और सन्नाटा छाया हुआ है। कॉलेज में प्रवेश लेने के पश्चात अन्तत: छात्र जा कहाँ रहे हैं? आज के हालात में यह हमारे लिए चिन्तन एवं चिंता का महत्वपूर्ण विषय होना चाहिये ।

जहां रोजगार की गारंटी है (IIT, AIMS, IIM आदि) ऐसे श्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश प्राप्त करने हेतु तथा सरकारी नौकरी के लिए कॉलेज के स्थान पर कोचिंग संस्थान युवाओं के आकर्षण का केंद्र बन गए हैं। सरकारी नौकरी के लिए जो व्यवस्था बनाई है, उसमें चयन के लिए युवकों को अपने परंपरागत कॉलेज के स्थान पर कोचिंग संस्थानों का अध्ययन-अध्यापन ज्यादा प्रभावी दिखाई दे रहा है। कोचिंग संस्थानों में प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम के अनुरूप ही पढ़ने लिखने की व्यवस्था कर रखी है। कोचिंग में केवल और केवल क्लास रूम टीचिंग ही है ।

राजकीय अवकाशों की लम्बी श्रंखला, छात्रसंघ चुनाव, नारेबाजी, हड़ताल जैसी गतिविधियों के लिए कोचिंग संस्थानों में कोई स्थान नहीं है । इन अनुत्पादक कार्यों में छात्रों को समय खराब नहीं करना पड़ता है। विद्यार्थियों की मानसिकता में एक अच्छा परिवर्तन यह आया है की वे आज के प्रतियोगी माहौल में समय के उपयोग के प्रति बहुत गंभीर हैं ।

दूसरी ओर विश्वविद्यालयपाठ्यक्रमों की रचना का उद्देश्य ही भिन्न है। कॉलेज एवं विश्वविद्यालय के संचालन पर सरकार जहाँ करोड़ों रुपए खर्च कर रही है वहीं दूसरी ओर क्लास रूम खाली पड़े हैं । न्यायालय द्वारा निर्धारित 75% उपस्थिति का मजाक हो रहा है। शिक्षक, विद्यार्थी, माता-पिता, समाज सभी इस अव्यवस्था के साक्षी होने के बावजूद शान्त हैं परन्तु आखिर कब तक?

एक तरफ आलीशान भवन, फर्नीचर, प्रयोगशाला, पुस्तकालय एवं यू.जी.सी. द्वारा निर्धारित योग्यताधारी अध्यापक होने के बावजूद प्रातः 10:00 बजे जैसे अनुकूल समय पर भी विद्यार्थी क्लास रूम से दूर भाग रहा है और कोचिंग सेंटर में 10 गुना फीस देकर बेसमेंट में लगी बेंच पर बैठकर प्रातः 6:00 बजे सामान्य काउंसलर से बड़ी गंभीरता के साथ अध्ययनरत हैं ।

आज अभिभावक भी बच्चे को ट्युशन पर भेजकर गर्व का अनुभव करने लग गये हैं। ऐसी स्थिति में कोचिंग सेंटर्स की आलोचना करने से काम नहीं चलेगा, अपितु शोध की आवश्यकता यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है और उसे ठीक करने के लिये हमारी वर्तमान व्यवस्था में किस प्रकार के परिवर्तन अपेक्षित हैं?

न केवल भारत अपितु एशिया के कई देशों में ट्यूशन का बाजार तेजी से बढ़ रहा है। औपचारिक शिक्षा का सिस्टम कमजोर होने से कोचिंग को बढ़ावा मिला है । एक जानकारी के अनुसार भारत, पाकिस्तान से लेकर इंडोनेशिया तक करीब 25 करोड़ बच्चे ट्यूशन ले रहे हैं ।

हाँगकाँग में 72%, दक्षिण कोरिया में 79%, जापान में 52% छात्र ट्यूशन पढ़ते है । चीन में2021 में पाबंदी से पहले 38% छात्र ट्यूशन पढ़ते थे। हमारे देश में कोटा शहर कोचिंग की राष्ट्रीय राजधानी बन चुका है। जहाँ प्रतिवर्ष पूरे देश से लगभग दो लाख विद्यार्थी कोचिंग संस्थानों में अध्ययन करने आते हैं ।

इस संक्षिप्त आलेख के माध्यम से मेरा सुझाव है कि सरकारी नौकरी में चयन हेतु आयोजित प्रतियोगी परीक्षा के प्राप्तांकों के साथ स्नातक / स्नातकोत्तर परीक्षाओं में प्राप्त अंकों का 20 फीसदी से 30 फीसदी वजन रखा जाना चाहिये । निःसन्देह गणना कठिन है क्योंकि राज्यों की परीक्षा व्यवस्था में भिन्नताएं बहुत है। दूसरा, विश्वविद्यालय पाठ्यक्रमों को आधार मान कर ही प्रतियोगी परीक्षाओं का पाठ्यक्रम बनाया जाना चाहिये। इससे कॉलेजों में स्वाभाविक रूप से उपस्थिति बढ़ेगी ।

धरातल की सच्चाई को समझते हुए, कोचिंग संस्थानों की उपस्थिति को सहर्ष स्वीकार करते हुए सरकार को कॉलेजों की भांति कोचिंग संस्थानों को संचालित करने के लिये शिक्षकों, भवन, फर्नीचर, पुस्तकालय आदि के लिए नियम बनाते हुए लागू करना होगा, जिससे छात्रों को कॉलेजों की भांति कोचिंग सेन्टर पर भी आवश्यक सुविधाएँ मिलने लगेंगी ।

नालंदा और तक्षशिला के समय से इतिहास गवाह है कि हमें विश्वविद्यालयों की समाज में उपयोगिता बनाये रखनी है। हालात इतने खराब नहीं हैं इसलिए इन्हें पुनः जीवन्त किया जा सकता है और यथाशीघ्र किया जाना चाहिये। इस विषय पर विद्वान शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के मध्य चर्चा -परिचर्चा आवश्यक हैं।