कोटा। जैनाचार्य प्रज्ञासागर मुनिराज ने सोमवार को प्रज्ञालोक में चल रहे चातुर्मास के दौरान अपने प्रवचन में धर्मद्रव्य के शुद्ध उपयोग पर गहन प्रकाश डालते हुए कहा कि यदि कोई व्यक्ति धर्म के नाम पर द्रव्य लेता है, उधार लेता है अथवा बोली के माध्यम से संकल्प करता है और समय पर भुगतान नहीं करता, तो उसे ब्याज सहित चुकाना चाहिए। अन्यथा वह पाप का भागी बनता है।
गुरुदेव ने स्पष्ट कहा कि धर्मद्रव्य का उपयोग केवल धर्मकार्य के लिए ही होना चाहिए। यदि मंदिर में भोजन का आयोजन हो रहा हो तो प्रत्येक व्यक्ति को धर्मादा में दान अवश्य देना चाहिए। बिना धर्मादे का योगदान किए भोजन ग्रहण करना दोष का कारण बनता है। यदि उस भोजन का पुण्यार्जक स्वयं आमंत्रित न करे।
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि अभिषेक, पादप्रक्षालन और शांतिधारा के लिए संचित धन का उपयोग केवल उन्हीं कार्यों में होना चाहिए। यदि इन मदों का धन मंदिर भोजन या अन्य किसी कार्य में लगा दिया जाए, तो वह दोष का कारण बनता है। धर्मद्रव्य का दुरुपयोग वास्तव में ‘पुण्य के स्थान पर पाप’ बन जाता है।
गुरुदेव ने रयणसार (गाथा 32–35) का उल्लेख करते हुए बताया कि धर्मद्रव्य के अपहरण से व्यक्ति को कठोर दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं, जैसे संतान का अभाव, दरिद्रता, शारीरिक अक्षमता, दृष्टिहीनता, अपंगता तथा चांडाल योनि में जन्म तक की प्राप्ति।
उन्होंने पंचकल्याणक और मंदिर जीर्णोद्धार जैसे अवसरों पर प्राप्त धन को उसी कार्य में व्यय करने का निर्देश दिया। यदि उसे अन्य कार्यों में लगाया गया, तो वह विपत्ति का कारण बन जाता है।
गुरुदेव ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि वर्तमान में मंदिरों में पूजा सामग्रियाँ भी भंडार से ली जाने लगी हैं। नारियल, चावल तक व्यक्ति स्वयं नहीं लाता। यह पूजा-द्रव्य का अपहरण है और इसके दोष से कोई नहीं बच सकता।
अंत में उन्होंने कहा कि देव, गुरु और माता-पिता के लिए जो भी दान या सेवा का संकल्प किया जाए, उसे सदैव भंडार खुला मानकर निभाना चाहिए। क्योंकि उनका ऋण मानव पर सदा बना रहता है।

