कोटा। एक सच्चे तपस्वी, व्रती और साधु को लौकिक संसार से दूरी बनानी चाहिए। साधु यदि लौकिक जनों की संगति में अधिक समय व्यतीत करेगा तो उसका अपना धर्म और साधना कमजोर पड़ जाएगी।
साधु का धर्म त्याग और संयम है, इसलिए उसे लौकिक जनों की संगति से बचना चाहिए। यह बात मंगलवार को प्रज्ञासागर मुनिराज के 37वें चातुर्मास के तहत प्रज्ञालोक महावीर नगर प्रथम में अपने धर्मोउपदेश में कही।
प्रज्ञासागर महाराज ने कहा कि साधु का कर्तव्य दान ग्रहण करना नहीं, बल्कि लोगों को दान के लिए प्रेरित करना है। उन्होंने कहा, यदि गृहस्थ धन देकर अर्थवान बनता है, और साधु धर्म के बदले धन स्वीकार करता है तो वह धन उसका अनर्थ कर देता है।
मुनिराज ने उदाहरण देते हुए कहा कि यदि साधु के पास कोड़ी है तो उसकी कीमत केवल दो कोड़ी है, लेकिन यदि गृहस्थ के पास कुछ भी नहीं है तो उसकी कीमत अनमोल है। उन्होंने कहा कि जीवन का सत्य यही है कि चाहे कोई भिखारी हो या सेठ, अंततः सभी को खाली हाथ ही जाना होता है।

