जटायु की जैन परंपरा जीवन में जागृति का संदेश देती है: आचार्य प्रज्ञासागर

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कोटा। आचार्य प्रज्ञासागर मुनिराज ने लालमंदिर महावीर नगर प्रथम में संध्याकालीन जिनदेशना में उन्होंने जैन परंपरा में वर्णित जटायु प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहा कि जटायु का चरित्र एक सामान्य गिद्ध का नहीं, बल्कि पूर्वजन्म में घोर पाप से ग्रस्त राजा दण्डक का माना गया है।

आचार्यश्री ने बताया कि कथानकानुसार दण्डक राजा दिगंबर मुनिराजों का विरोधी था, और हिंसा के कारण उसे असंख्य भवों तक दुःखद परिणाम भुगतने पड़े। अनेक भवों के उपरांत वह गिद्ध योनि में जन्म लेता है। इसी दौरान दो अतिशययुक्त मुनिराज उसके समीप आहार ग्रहण कर रहे होते हैं।

मुनियों के दिव्य तेज को देखकर गिद्ध को जातिस्मरण हो जाता है तथा पूर्वजन्म के पापकर्म और मुनिसंघ-विनाश का स्मरण जागृत हो उठता है। पश्चाताप से व्याकुल जटायु को मुनिराज शांत करते हैं और धर्ममार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। विनयपूर्वक चरणोदक ग्रहण करने पर उसके भीतर आध्यात्मिक जागृति प्रकट होती है।

गुरुदेव ने कहा कि पश्चाताप और प्रायश्चित मनुष्य को भीतर से स्वर्णवत् बना देते हैं। जीवन कितना है, यह कोई नहीं जानता, पर जो समय मिला है, उसे सत्कर्मों में लगाना ही सच्चा पुरुषार्थ है। उन्होंने आयु के विभिन्न पड़ावों को समझाते हुए कहा कि 10 में दावड़ा, 20 में बावरा, 30 में तीखा, 40 में फीका, 50 में पाका, 60 में थाका, 70 में बिस्तर, 80 में लस्सी, 90 में डब्बा खाली, 100 में सो गए, पाप बीज खो गए, पुण्य बीज खो गए।