कोटा। जैनाचार्य प्रज्ञासागर जी मुनिराज का 37वां चातुर्मास महावीर नगर प्रथम स्थित प्रज्ञालोक में रविवार को भी जारी रहा। इस अवसर पर मुनिराज ने धर्मोपदेश में जैन धर्म के सप्त क्षेत्रों में दान के महत्व पर गहन चर्चा की।
उन्होंने कहा कि रयणसार की गाथा (गाथा संख्या 18) में उल्लिखित सप्त क्षेत्र जिनालय, जिनबिंब, शास्त्र, साधु, संत निवास, तीर्थ और साधर्मी (भाविका) में दान को जीवन के श्रेष्ठतम पुण्यकर्मों में गिना गया है।
जैनाचार्य प्रज्ञासागर जी ने अपने प्रवचन में स्पष्ट रूप से कहा कि जिस प्रकार मित्र अच्छे व बुरे समय में साथ रहता है ऐसे ही इन क्षेत्रो का दान आपको मित्र की भांति परलोक में भी मदद करेगा। यदि किसी के पास धन है, तो उसे पहले अपने लिए मकान न बनाकर भगवान के लिए मंदिर बनाना चाहिए। उन्होंने कहा, एक मंदिर तुम्हारे लिए दस मकान बना देगा। भगवान के दर्शन से सम्यक दर्शन की प्राप्ति होती है।
प्रवचन में यह महत्वपूर्ण बात कही गई कि सरसों के बराबर प्रतिमा या मंदिर बनवाकर भी दानकर्ता को समभाव से पुण्यफल प्राप्त होता है। योग्यता के अनुसार दान देना चाहिए। चाहे वह एक रुपया हो या एक लाख रुपया, पुण्य समान ही मिलता है, यदि भावना निष्कलंक हो।
उन्होंने उदाहरण देते हुए समझाया कि जिस प्रकार देश के विकास के लिए कर (Tax) दिया जाता है, उसी प्रकार धर्म की उन्नति के लिए भी समर्पण आवश्यक है। उन्होंने गृहस्थों से आग्रह किया कि वे अपनी आय का छठा भाग धर्मकार्य में अर्पित करें। यदि आप सरकार को 18% टैक्स देते हैं, तो भगवान को भी 18% ‘जीएसटी’ देना प्रारंभ कीजिए, वह आपको करोड़ों में लौटाएगा।
आचार्यजी ने व्यावहारिक सुझाव देते हुए कहा कि मंदिरों के समीप संत निवास शाला में भोजनशाला नहीं बनने पर जोर देते हुए कहा कि ऐसा करने से श्रावक प्रमादी हो जाते हैं । उन्होंने कहा कि अभिषेक के समय तालियां बजाना उस कार्य की अनुमोदना होती है, न कि प्रदर्शन। यह दूसरों को धर्मकार्य के लिए प्रेरित करता है।

