घर या महल वास्तुशास्त्र के विपरीत बने हों तो सुख की अनुभूति नहीं हो सकती: प्रज्ञासागर

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कोटा। आचार्य प्रज्ञासागर मुनिराज का 37वां चातुर्मास महावीर नगर प्रथम स्थित प्रज्ञालोक में सोमवार को भी जारी रहा। जैनाचार्य प्रज्ञासागर महाराज ने अपने प्रवचनों में वास्तु विज्ञान को केवल एक तकनीकी ज्ञान न मानते हुए इसे जीवन में सुख-दुख के अनुभवों से गहराई से जुड़ा एक आध्यात्मिक और वैज्ञानिक शास्त्र बताया।

उन्होंने कहा कि वास्तु विश्वसनीय है, अविश्वसनीय नहीं। यह केवल भवन निर्माण की दिशा तय करने का कार्य नहीं, बल्कि व्यक्ति के जीवन में आने वाले सकारात्मक व नकारात्मक प्रभावों का गूढ़ विज्ञान है। उन्होंने कहा कि पूर्वकालीन मुनिगण नाम भी वास्तुशास्त्र की वैज्ञानिकता को स्वीकारते थे।

प्रवचनों में उन्होंने स्पष्ट किया कि व्यक्ति के जीवन में सुख और दुःख का मूल कारण उसके कर्म हैं, न कि केवल वास्तु दोष या संयोग। परंतु कर्म के साथ साथ बाह्य निमित्त भी महत्वपूर्ण होते हैं। यदि किसी स्थान का वास्तु दोषपूर्ण है, तो वह कर्मफल के उदय को और अधिक तीव्र या विकराल बना सकता है। अगर मंदिर, घर या महल वास्तुशास्त्र के विपरीत बने हों तो वह शुभ नहीं माने जाते। वहाँ रहने वालों को सुख की अनुभूति नहीं हो सकती।

उन्होंने भूमि चयन की विधियों पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि जमीन का आकार, दिशा और कोनों की पूर्णता के लिए सभी बातें आवश्यक हैं। आयताकार भूमि (जैसे 30×60, 60×90 आदि) शुभ मानी जाती है, जबकि त्रिकोण या खंडित कोने दोषपूर्ण कहे जाते हैं। दिशा, राशि और वास्तु का संबंध होता है। उन्होंने बताया कि भूमि की दिशा भी व्यक्ति की राशि और प्रकृति के अनुरूप होनी चाहिए।

वास्तानुसार ईशान कोण में इस दिशा को अत्यंत पवित्र और शुभ माना गया है। इसमें देवताओं का वास होना चाहिए। क्योंकि यहां से घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश होता है और सुख-समृद्धि बढ़ती है। नैऋत्य कोण वास्तुशास्त्र में घर या भवन की दक्षिण-पश्चिम दिशा (South-West Direction) को कहा जाता है। इस दिशा में घर के मुखिया का कमरा सर्वोत्तम रहता है, इससे परिवार में स्थायित्व, शक्ति और नियंत्रण आते हैं। आग्नेय कोण रसोई हेतु उचित मानी जाती है।