आचार्य प्रज्ञासागर ने कहा; जैन धर्म में शहद का सेवन पाप है, जानिए क्यों

0
10

कोटा। प्रज्ञासागर जी मुनिराज का 37वां चातुर्मास महावीर नगर प्रथम स्थित प्रज्ञालोक में जारी है। इस अवसर पर बुधवार को मुनिराज ने धर्मोपदेश में श्रावक अनुशासन, आहार दान की मर्यादा तथा जैन धर्म के शुद्ध आहार विवेक पर विस्तार से मार्गदर्शन प्रदान किया।

उन्होंने कहा कि जैन धर्म में आहार दान अत्यंत पवित्र और संयमपूर्ण कार्य माना गया है, किन्तु इसे विवेक और नियमों के साथ ही किया जाना चाहिए। गुरुदेव ने स्पष्ट किया कि वही श्रावक आहार दान देने का अधिकारी होता है, जो आठ मूल गुणों का पालन करता हो तथा मुनि द्वारा बताए नियम जैसे कि रात्रिभोज का त्याग, जीव हिंसा से परहेज, जमींकंद का त्याग आदि सात व्यसनों से दूर रहता हो।

इन मूल गुणों के बिना यदि कोई आहार दान करता है तो वही आहार दान योग्य नहीं है। ऋतु, प्रकृति और साधु की आराधना के अनुरूप भोजन तैयार किया जाए, यही जैन परंपरा का शुद्ध रूप है। श्रावक दिन में दो बार भोजन करता है, जबकि साधु केवल एक बार आहार लेते हैं। एक बार लिया गया भोजन ही ‘आहार’ कहलाता है, बार-बार ग्रहण किया गया अन्न केवल ‘खाना’ बन जाता है, न कि आहार।

आचार्य प्रज्ञासागर ने जैन धर्म में दूध की स्वीकृति की विवेचना करते हुए कहा कि भगवान महावीर स्वामी ने भी दूध का आहार रूप में स्वीकार किया था। अतः दूध पूर्णतः शाकाहारी है। उन्होंने स्पष्ट किया कि दूध, घी, छाछ, लस्सी इत्यादि ‘गौरस’ कहलाते हैं, जो मांसाहार की श्रेणी में नहीं आते। दूध में रक्त नहीं होता, इसीलिए उसका सेवन पाप नहीं माना गया है।

जैन धर्म में शहद का त्याग इसलिए किया गया है, क्योंकि इसे प्राप्त करने में असंख्य कीटों की हिंसा होती है। कहा गया है कि एक बूँद शहद , सात गाँवों का नाश के बराबर पाप होता है। जब तक आहार विवेक और अनुशासन नहीं होगा, तब तक आत्मकल्याण का द्वार नहीं खुलता।