अनजाने में हुए पाप का प्रायश्चित करने का श्रेष्ठ माध्यम है दान: प्रज्ञासागर मुनिराज

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कोटा। महावीर नगर प्रथम स्थित प्रज्ञालोक में सोमवार को चातुर्मास के दौरान आचार्य प्रज्ञासागर ने अपने प्रवचनों में कहा कि लोभी व्यक्ति का दान निरर्थक होता है। यदि कोई दान इस उद्देश्य से दिया जाए कि एक रुपये के बदले दस गुना वसूला जाएगा, तो ऐसा दान व्यर्थ है। लोभ और कंजूसी का दान भी निरर्थक है। इसी प्रकार, यश, कीर्ति या किसी प्रकार की अपेक्षा से दिया गया दान भी वास्तविक अर्थ में दान नहीं है।

उन्होंने कहा कि दान सदैव निस्वार्थ भाव से, मोक्ष प्राप्ति की भावना तथा दूसरों के कल्याण के उद्देश्य से दिया जाना चाहिए। दान में उपकार की भावना होनी चाहिए, न कि दिखावे की। दान सदैव छिपाकर देना श्रेष्ठ है, न कि छपाकर। आहार दान, औषधि दान, अभय दान, ज्ञान दान और गुप्त दान यह दान के पाँच प्रकार बताए गए हैं। गुप्त दान का स्वरूप ऐसा होना चाहिए कि एक हाथ से दिया गया दान दूसरे हाथ को भी ज्ञात न हो।

आचार्य श्री ने उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे किसान बीज को भूमि में दो से तीन इंच गहराई में छिपाकर बोता है, तो प्रकृति उसे हजार गुना बढ़ाकर फसल के रूप में लौटाती है। उसी प्रकार गुप्त दान के फल भी बहुगुणित होकर प्राप्त होते हैं। उन्होंने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति की कमाई में दान का अंश अवश्य होना चाहिए। क्योंकि धनार्जन में अनजाने में पाप का संयोग हो सकता है और उस पाप का प्रायश्चित करने का श्रेष्ठ माध्यम दान है।

आचार्य श्री ने आगे कहा कि जैसे प्रकृति समुद्र के खारे जल को लेकर उसे मीठे वर्षा जल के रूप में परिवर्तित कर देती है, वैसे ही दान देने से धन में जुड़ा कोई भी पाप धुल सकता है। उन्होंने चेताया कि जैसे रुका हुआ पानी सड़ जाता है, वैसे ही धन को केवल संग्रहित करने के बजाय समाज कल्याण के लिए दान में लगाना चाहिए।